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संसार के प्रायः सभी धर्मों में कहा गया है- पाप से घृणा करो, पापी से नहीं । पाप को मारो, पापी को नहीं । पाप Satara के लिए पापी का वध कर देना बुद्धिमत्ता नहीं है ।
यह तो वैसी ही बात हुई कि जैसे एक डाक्टर रोगी का रोग दूर करने के लिए उसे ही समाप्त कर दे। डाक्टर रोगी का नहीं, रोग का शत्रु होता है। रोगी की रक्षा के लिए ही वह रोग को नष्ट करता है ।
निष्कर्ष यह है कि पापी या धर्मात्मा होना व्यक्ति की स्थिति से सम्बद्ध है । मानसिक स्थिति एक जैसी नहीं होती। शुभ विचार का व्यक्ति धर्मात्मा कहलाता है तो अशुभ विचारों से पापी । अतः किसी पापी को जान से मार देने की • अपेक्षा उसके मन में शुभ- विचारों को संक्रान्त करना अधिक श्रेयस्कर होगा । कूरता, हिंसा, द्वेष, निर्दयता आदि दुर्भावनाओं का विनाश दया, करुणा, अहिंसा, मैत्री, सौहार्द आदि सद्भावनाओं के माध्यम से ही संभव है, न कि दुर्भावना वाले व्यक्ति के साथ दुर्भावना का व्यवहार करने से । भारतीय संस्कृति के इसी सनातन सत्य व उदात्त चिन्तन का निदर्शन उपर्युक्त कथानकों में हुआ है । वैदिक धारा के वाल्मीकि, जैन विचारधारा के अर्जुनमाली एवं सुलस कसाई तथा बौद्ध धारा के अंगुलिमाल - ये तीनों चरित नायक अपने जीवन के पूर्व भाग में आकण्ठ हिंसादि पापों में डूबे हुए थे, परन्तु बाद में वे परमपूज्य बन गए । महर्षि नारद रत्नाकर को, भगवान् महावीर ने अर्जुनमाली व सुलस कसाई को, तथागत बुद्ध ने अंगुलिमाल को सद्धर्म का उपदेश देकर, तथा दुर्भावना के बदले सद्भाव का व्यवहार कर, इनके जीवन की अधोगामिनी स्थिति को बदल दिया, उनके चिन्तन को झकझोर दिया जिससे उन्हें अपने अशुभ विचारों व दुष्कृत्यों का भान हुआ, परिणामस्वरूप वे धर्मात्मा बन गए ।
द्वितीय सप्ड 209