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________________ "मेरे परिवार के लिए !” रत्नाकर का उत्तर था । "तुम्हारा परिवार क्या तुम्हारे पापों का फल भोगते हुए क्या तुम्हारा साथ देगा ?” नारद ने "क्यों नहीं!” रत्नाकर बोले - " अवश्य वे मेरे पापों के फल को भी बांटेंगे ।" पूछा। "जरा उनसे पूछ तो लो ।" नारद बोले - " मैं भागूंगा नहीं, यदि तुम्हें संदेह है तो मुझे वृक्ष से बांध जाओ ।" रत्नाकर ने नारद को वृक्ष में बांध दिया। उसने घर जाकर अपनी पत्नी से प्रश्न किया - "क्या तुम मेरे पापों के फल के भागीदार बनोगी ?" “मैं क्यों भागीदार बनूंगी?" पत्नी ने उत्तर दिया- "जो करेगा, वही भरेगा। तुम हमारा पालन-पोषण करते हो, यह हम पर तुम्हारा अहसान नहीं है । यह तुम्हारा फर्ज है जो तुम्हें निभाना ही है । इसे पाप करके निभाओ या धर्म करके। यह तुम पर निर्भर है ।" "रत्नाकर की आंख खुल गई। वह दौड़ा हुआ आया और नारद जी के चरणों में गिर पड़ा। नारदजी ने उसे राम-नाम स्मरण का उपदेश दिया । रत्नाकर ने अखण्ड समाधि लगाकर राम-नाम जप शुरू कर दिया ।” युग बीत गए। देवर्षि नारद उधर से लौटे। देखा-बांबियोंल्म से राम नाम की ध्वनि निकल रही है । वे समझ गए। उन्होंने उसे पुकारा । रत्नाकर वल्मीक (बांबी) से निकलने के कारण वाल्मीकि नाम से विख्यात हुए। एक लुटेरे के जीवन से ऊपर उठ कर रत्नाकर अब एक लोकमान्य महर्षि बन गए थे । वही महर्षि वाल्मीकि जो रामायण के रचयिता हुए। क्रौंच - युगल में से एक का वध देखकर इन्हीं के हृदय-कण्ठ से आदि कविता का प्रथम छन्द फूट निकला था - मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत्क्रौञ्चमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम् ॥ - हे निषाद ! तुम अनन्त वर्षों तक प्रतिष्ठा से वंचित रहोसर्वदा अप्रतिष्ठा/अपयश पाते रहो क्योंकि तुमने प्रेम भावना में निमग्न क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक को मार गिराया है। OOO धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता / 208
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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