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________________ मृत्यु साक्षात् थी। सुदर्शन सेठ ने प्रभु को भाववन्दन किया और सागरी संथारा धारण करके ध्यानस्थ हो गए। अर्जुन सुदर्शन के समक्ष पहुंचा। मुद्गर घुमाया। लेकिन यह क्या? मुद्गर वाला हाथ जड़ हो गया! अर्जुन ने सुदर्शन को अपलक देखा । अर्जुन की देह में संस्थित यक्ष सुदर्शन के तेज का सामना न कर सका। वह अर्जुन की देह से निकल कर भाग गया। अर्जुन की देह निढाल हो गई थी। वह खड़ा न रह सका। छ: माह से वह निराहार था। सुदर्शन ने उपसर्ग टला जानकर ध्यान खोला। अर्जुन की दशा पर उन्हें बड़ी करुणा आई। उन्होंने अर्जुन को संभाला। अर्जुन ने सुदर्शन को प्रणाम करते हुए पूछा- “आप कहां जा रहे हैं?' "मैं महावीर का उपासक हूं।" सुदर्शन सेठ बोले- “महावीर गुणशीलक में विराजित हैं। उन्हीं के दर्शनों के लिए मैं जा रहा हूं।" ___"महावीर कौन हैं?" अर्जुन ने पूछा। .. “महावीर जिनधर्म के प्रवर्तक हैं।' सुदर्शन सेठ बोले- “वे करुणा और अहिंसा के परमावतार हैं। वे मंगल और कल्याण के द्वार हैं। राजा और रंक, पापी और पुण्यात्मा सभी पर वे एक दृष्टि रखते हैं। उनका द्वार सभी के लिए खुला है।' “क्या मुझ जैसे अधम और हिंसक के लिए भी?" अर्जुन ने "सामने वृक्ष से कुछ पत्ते तोड़ लाओ।" बुद्ध बोले। अंगुलिमाल ने झटपट बुद्ध का कार्य कर दिया। अंगुलिमाल ने बुद्ध को पत्ते देते हुए अपनी तलवार खींची। बुद्ध बोले-"धैर्य रखो अंगुलिमाल! अब इन पत्तों को इनकी शाखा पर पुनःस्थापित कर दो, जोड़ दो।" • अंगुलिमाल सहमते हुए बोला- "यह असंभव है। डाल से टूटा हुआ पत्ता दोबारा जुड़ नहीं सकता है। यह कार्य मुझसे नहीं होगा।" बुद्ध बोले-"जो जोड़ न सके, उसे तोड़ने का भी कोई अधिकार नहीं है। अंगुलिमाल! तुम तोड़ने में बड़े कुशल हो। परन्तु जोड़ना नहीं जानते हो। तुम जीवन छीनना जानते हो, देना नहीं। तुमने हजारों लोगों से उनके जीवन छीने हैं, लेकिन क्या आज तक एक को भी जीवन दे सके हो?" बुद्ध की वाणी ने अंगुलिमाल के हृदय में उथल-पुथल मचा दी। उसका जीवन बदल गया। उसने बुद्ध के चरण पकड़ कर सदा-सदा के लिए हिंसा का त्याग कर दिया। परार्थ और परमार्थ के लिए उसने अपना जीवन अर्पित कर दिया। जैन धर्म पदिक धर्म की सास्कृतिक एकता /204
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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