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________________ (दरिद्रता)के अभिशाप का अपहरण करता है, परन्तु सज्जनों का समागम पाप, ताप और दैन्य-अभिशाप- तीनों का तत्काल नाश कर देता है। बौद्ध परम्परा में भी वैदिक परम्परा के उपर्युक्त स्वर को ही मुखरित किया गया है। इसके समर्थक निम्नलिखित उद्धरण मननीय हैं यादिसं कुरुते मित्तं यादिसं चूपसेवति। स वे तादिसको होति, सहवासो हि तादिसा। (इतिवृत्तक, 3/27) जो जैसा मित्र बनाता है और जो जैसा सम्पर्क रखता है, वह वैसा ही बन जाता है, क्योंकि सहवास (का प्रभाव ही) ऐसा है। सुखो हवे सप्पुरिसेन संगमो (विमानवत्थु, 2/34/411) - सज्जन की संगति सुखदायी होती है। सब्भिरेव समासेथ, पण्डिते हेत्थ दस्सिभिः। (थेरगाथा, 7(1)4) -विद्वान् और आत्महितैषी को सत्पुरुषों के साथ ही रहना चाहिए। निहीनसेवी न च बुद्धसेवी, निहीयते कालपक्खे व चंदो। (दीघनिकाय, 3/8/2) -जो नीच पुरुषों की संगति करते हैं, ज्ञानी जनों की संगति नहीं करते, वे कृष्णपक्षी चन्द्रमा की तरह हीन-क्षीण होते जाते हैं। जैन परम्परा में भी उक्त विचारधारा का ही समर्थन प्रचुरतया प्राप्त होता है। एक जैनाचार्य की उक्ति इस प्रसंग में मननीय है: दुजणसंसग्गीए संकिज्जदि संसदो वि दोसेण। पाणागारे दुद्धं पियंतओ बंभणो चेव ॥ (भगवती आराधना, 346) - दुर्जन के संसर्ग से निर्दोष व्यक्ति भी लोगों द्वारा दोषयुक्त ही गिना जाता है। मदिरा-गृह में जाकर दूध पीने वाले ब्राह्मण को भी लोग मद्यपायी (शराबी) ही समझते हैं। जिनवाणी स्पष्ट रूप से दुर्जन नीच व मूर्ख की संगति से बचने तथा सज्जनों की संगति करने की स्पष्ट प्रेरणा देती है: कुजा साहूहि संयवं (दशवै. 8/53)।
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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