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हीन बन जाता है। समान श्रेणी की संगति से जैसा का वैसा ही रहता है और विशिष्ट (उच्च विचार वाले) लोगों की संगति से विशिष्ट व्यक्ति बन जाता है। तात्पर्य यह है कि संगति के अनुरूप ही व्यक्ति का व्यक्तित्व परिष्कृत या तिरस्कृत आदि हो जाता है। इसी दृष्टि से संस्कृत के एक कवि ने ठीक ही यह परामर्श दिया है- सद्भिरेव सहासीत, सद्भिः कुर्वीत संगतिम् (सुभाषितरत्नभाण्डागार)- अर्थात् मनुष्य को चाहिए कि वह सज्जनों के साथ ही उठे-बैठे और उन्हीं की संगति में रहे। वैदिक ऋषि भी यही कामना प्रकट करता है- पुनर्ददतानता जानता संगमेमहि (ऋग्वेद, 5/51/15)- अर्थात् हम दानी, अहिंसक विद्वान् की संगति करें। महर्षि व्यास के मतानुसारसतां सद्भिर्नाफलः संगमोऽस्ति (महाभारत, 3/297/97) अर्थात् सज्जनों की संगति कभी निष्फल नहीं होती। निश्चय ही सत्संगति से व्यक्ति में सद्गुणे का विकास होकर महापुरुष होने की क्षमता सार्थक होती है।
आदिगुरु शंकराचार्य ने कहा था
क्षणमिह सज्जनसंगतिरेका।
भवति भवार्णवतरणे नौका॥
सज्जनों की एक क्षण की संगति भी भव-सागर से उतारने वाली नौका के समान होती है। संग अपना रंग दिखाता है। दुर्बल-मानस मनुष्यों को कुसंग विनाश के गर्त में ढकेल देता है। कहा गया है
पाइ कुसंगति को न नसाई।
अर्थात् कुसंग पाकर कौन नष्ट नहीं हुआ? आत्मा परमात्मा रूप होती है। कुसंग से आत्मा मैली हो जाती है। सुसंग का संयोग आत्मा को सन्मार्ग का पथिक बना देता है, जिस से वह अपने शुद्ध-बुद्ध निरंजन स्वरूप को पुनः प्राप्त कर लेती है। सुसंग महान् प्रभावक होता है। कहा गया है
शठ सुधरहिं सत संगति पाई।
अर्थात् दुष्ट भी सत्संग पाकर सुधर जाते हैं। लोहे से स्वर्ण बन जाते हैं। सुसंग- सत्संग को पाप-ताप और अभिशाप का हर्ता बताते हुए गर्गसंहिता में कहा गया है
गंगा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरुहरेत् । पापं तापं तथा दैन्यं सद्यः साधुसमागमः ॥ अर्थात् गंगा पाप का, चन्द्रमा ताप का और कल्पवृक्ष दैन्य