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ससंग की महिमा
(सांस्कृतिक पृष्ठभूमिः)
पापाचरण से मनुष्य पापी हो जाता है और धर्माचरण से धर्मात्मा। पाप मनुष्य को पतित करता है तथा धर्म उसका उत्थान करता है। इसीलिए पाप त्याज्य है और धर्म ग्राह्य ।
अज्ञान के कारण मनुष्य पाप में संलग्न होता है। जब उसका अज्ञान टूटता है तो उसकी आंख खुलती है। पाप का स्वरूप और परिणाम जब उसे ज्ञात होता है तो फिर उसे छोड़ने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता। 'वह स्वतः छूट जाता है। पापमुक्त मनुष्य पवित्र बन जाता है।
इस पवित्रता के संचार में संगति का महत्त्व निर्विवाद है। साधुजनों की सत्संगति से या सद्गुरु के सुयोग से ही सज्ज्ञान का प्रकाश मिल सकता है और फलस्वरूप व्यक्ति अपने आचरण को सुधार कर धर्मात्मा बन सकता है। वैदिक परम्परा में संगति के सम्बन्ध में बड़े उपयोगी विचार प्रस्तुत किये गए हैं। महाभारतकार व्यास ने एक सनातन नियम का निरूपण इस प्रकार किया है:
हीयते हि मतिस्तात हीनैः सह समागमात् । समैश्च समतामेति, विशिष्टैश्च विशिष्टताम् ॥
(महाभा. 3/1/30) -अपने से हीन (गुणों वाले) व्यक्तियों की संगति से व्यक्ति जिस
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