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________________ सनातन है। शाश्वत है। तू था, है और रहेगा। भिखारी नहीं रहा। राजा भी नहीं रहेगा। सत्य सदा रहता है। असत्य नहीं रहता है।" महाराजा जनक और महर्षि अष्टावक्र के मध्य चले इस संवाद के फलस्वरूप 'अष्टावक्र गीता' का जन्म हुआ जो आज भी अध्यात्म जगत् का महान् ग्रन्थ माना जाता है। [३] भक्तराज हनुमान विदिक) वैदिक मान्यतानुसार महाभारत के युद्ध में भक्तराज हनुमान् अर्जुन की ध्वजा पर विराजित रहे थे। हनुमान् ने ध्वजा पर रहते हुए ही श्रीकृष्ण का गीता-संदेश श्रवण किया था। गीतोपदेष्टा श्रीकृष्ण से उच्चासनध्वजा पर बैठकर गीता उपदेश सुनने से हनुमान् ने श्रोता की मर्यादा का उल्लंघन किया था। अतः उन्होंने अपने इस दोष को धोने के लिए श्रीकृष्ण से क्षमा मांगना उचित समझा। युद्धोपरान्त हनुमान् ध्वजा से नीचे उतरे और श्रीकृष्ण से बोले- "भगवन्! आपने गीता का जो ज्ञान अर्जुन को दिया था, वह मैंने भी पूरे मनोयोग से ध्वजा पर बैठे-बैठे सुना था । वह सम्पूर्ण गीता ज्ञान मैंने आत्मसात् कर लिया है। मेरा ज्ञान-ग्रहण ज्ञान की चोरी और श्रोता की मर्यादा का उल्लंघन न माना जाए, इसीलिए मैं आपसे क्षमा मांगने और एतदर्थ आपको सूचित करने उपस्थित हुआ हूं।" श्रीकृष्ण बोले- "भक्तराज! यह रहस्य बताकर तुम ज्ञान की चोरी के पाप से तो मुक्त हो गए हो परन्तु तुमने श्रोता की मर्यादा का उल्लंघन किया है। इसके लिए तुम्हें दण्ड भोगना होगा। निःसंदेह तुम भक्तराज हो और असंख्य भक्तजन तुम्हें हृदय में धारण करके तुम्हारी उपासना करते हैं, परन्तु अक्षम्य दोष को तो भगवान् को भी अपनी ज्ञान और कर्म की शुद्धि से परिशुद्ध करना पड़ता है।" श्रीकृष्ण बोलते चले गए-"हनुमान्! तुम को याद होगा कि अशोक वाटिका में माता-सीता अशोक वृक्ष के मूल में नीचे बैठी थी। और
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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