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________________ तत्पश्चात् अष्टावक्र को प्रणाम करके जनक ने जिज्ञासा रखी- “गुरुदेव! मुझे सत्य मार्ग का ज्ञान दीजिए। मुझे समझाइए कि स्वप्न के क्षण का भिखारी जनक सत्य है या स्वप्न के पश्चात् का राजा जनक सत्य है?" अष्टावक्र ने कहा-“राजन्! जिसे आप अपना समझते हैं, वही मुझे दे दीजिए।' जनक ने कहा- "मैं अपना आधा राज्य आपको देता हूं।" इस पर अष्टावक्र सस्मित स्वर में बोले-“पर राज्य आपका है कहां?" जनक आश्चर्यचकित होते हुए बोले- "तो किसका है? गम्भीर होते हुए अष्टावक्र ने पूछा- “आपसे पहले इस राज्य का स्वामी कौन था?' जनक ने उत्तर दिया- "मेरे पिता।" अष्टावक्र ने पुनः प्रश्न किया- “और आपके बाद इस राज्य का स्वामी कौन होगा?" जनक बोले-"मेरा उत्तराधिकारी इसका स्वामी होगा।' अष्टावक्र ने सत्य का दर्शन अनावृत करते हुए कहा-“राजन्! जिस साम्राज्य के स्वामी बदलते रहते हैं, वह तुम्हारा कैसे हो सकता है? आज जिसे तुम अपना कह रहे हो, वह कल किसी का था और कल किसी और का होगा। केवल मध्य में तुम्हारा है। और जो अस्थायी या क्षणिक तुम्हारा है, वह तुम्हारा कैसे हो सकता है।" महाराज जनक की आंखों पर से ममत्व का पर्दा हट गया। वे बोले- “गुरुदेव! यह राज्य मेरा नहीं है। मैं अपना मन आपको अर्पित करता हूं।" अष्टावक्र ने महाराजा जनक का मन स्वीकार करते हुए कहा“राजन्! आपका मन अब मेरा हो गया। अतः आपके मन में जो आए उसे आगे बढ़ाना या न बढ़ाना मेरा अधिकार है।" ऐसे विलक्षण गुरु बालक को पाकर जनक गद्गद थे। फिर अष्टावक्र ने जनक के प्रश्न का उत्तर दिया ___"तू अब भिखारी नहीं है, राजा है। स्वप्न में तू राजा नहीं था, भिखारी था। अतः भिखारी और राजा दोनों असत्य हैं क्योंकि असत्य अस्थिर होता है, वह नष्ट हो जाता है। लेकिन स्वप्न में तू था, अब भी तू है और भविष्य में भी तू रहेगा। शेष सब बनेगा, मिटेगा, लेकिन तू सदैव अपरिवर्तनशील सदा-स्थिर रहेगा। इसलिए तू ही सत्य है, शेष सब असत्य है। तू आत्मा है। तू न राजा है, न भिखारी है। अतः आत्मा ही सत्य है। यह
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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