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________________ दे दी। तभी एक चील ने झपट्टा मारा। खिचड़ी बिखर गई। क्षुधा से व्याकुल जनक मूर्छित हो गए। फिर उनकी निद्रा टूट गई। हैरान-परेशान जनक ने इधर-उधर देखा । वे स्वर्ण-पर्यंक पर थे। उनके अन्तर्मानस में एक प्रश्न उभरा- "सत्य क्या है?""भिखारी जनक सत्य है या राजा जनक सत्य है?' चन्द क्षण पहले का भिखारी जनक उतना ही सत्य प्रतीत होता था जितना कि वर्तमान क्षण का राजा जनक। महाराजा जनक सत्य की तह तक नहीं पहुंच पाए। वे उदास हो गए। उनकी सभा में अनेक विद्वान् थे। लेकिन कोई भी उन्हें समाधान नहीं दे पाया। एक दिन अष्टवर्षीय आत्मज्ञानी अष्टावक्र महाराज जनक की सभा में पहुंचे। वहां अनेक विद्वान् उपस्थित थे। आठ जगह से टेढेमेढे अष्टावक्र को देखते ही सभा में उपस्थित विद्वान खिलखिलाकर हंस पड़े। जनक के अधरों पर भी मुस्कान उभर आई। यह देख कर अष्टावक्र भी हंसने लगे। महाराजा जनक ने अष्टावक्र से पूछा-"बालक! तुम क्यों हंसें?" अष्टावक्र ने प्रतिप्रश्न किया-"आप और आपके सभासद क्यों हंसे?' जनक ने सभासदों की हंसी का कारण उनकी बेढब आकृति को बताया। इस पर अष्टावक्र बोले- “मैं अपनी भूल पर हंसा । मैं भूलवश चमारों की सभा में आ पहुंचा हूं। भ्रमवश मैंने इसे विद्वानों की सभा समझ लिया था। चमार चमड़े की ही परख कर सकता है, वह आत्मगुण को नहीं पहचान सकता।" महाराज जनक ने तीक्ष्ण दृष्टि से देखा। नन्हे अष्टावक्र के सत्य शब्दों ने उनके अन्तस् को हिला दिया था। अष्टावक्र में उन्हें ज्ञानात्मा के दर्शन हुए। उन्होंने अपने मन का प्रश्न अष्टावक्र के समक्ष रखते हुए कहा“विप्रवर! मुझे बताइए कि मैं राजा हूं या भिखारी? सत्य दर्शन का वरदान दीजिए ऋषिवर!” अष्टावक्र सख्त स्वर में बोले- “नासमझ राजा! तुम प्रश्न का समाधान चाहते हो । लेकिन तुम्हें गुरु और शिष्य के आसनों की मर्यादा का विवेक नहीं है। सर्वप्रथम जिज्ञासु की मर्यादा का पालन कीजिए।" ___ जनक को अपनी भूल का अहसास हुआ। वे सिंहासन से नीचे उतर गए और अष्टावक्र को ससम्मान राजसिंहासन पर आसीन किया।
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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