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________________ आपको विद्या सिखाने वाला गुरु नीचे खड़ा है। इस ढंग से तो आप जीवन भर विद्या प्राप्त नहीं कर सकते हैं। आप राजा हैं और आपको विद्या देने वाला व्यक्ति आपकी प्रजा है । निःसंदेह यह चाण्डाल है, परन्तु इस क्षण यह आपका गुरु है और गुरु का आसन सदैव सर्वोपरि होता है । आप आसन बदल कर सीखिए ।" राजा श्रेणिक तीर्थंकर महावीर के परमभक्त थे । तात्त्विक बात वे तुरन्त समझ जाते थे । वे शीघ्र ही सिंहासन से नीचे उतरे और चाण्डाल को सिंहासन पर बैठाया और बोले - "गुरुदेव ! मुझे विद्यादान दीजिए।" चाण्डाल ने मंत्र बोला। प्रथम बार ही राजा श्रेणिक ने उसे हृदयंगम कर लिया। तत्पश्चात् उन्होंने चाण्डाल को पुनः वधिकों को सोंपते हुए उसका वध करने का निर्देश दिया । अभयकुमार पुनः बोले- “पृथ्वीनाथ! आप पुनः गुरु की महिमा मिटा रहे हैं। गुरु तो सदा अवध्य होता है ।" राजा श्रेणिक ने चाण्डाल को मुक्त कर दिया । वह हंसते हुए अपने घर चला गया। [त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित से ] [२] महाराजा जनक और मुनि अष्टावक्र (वैदिक) मिथिलाधिपति महाराजा जनक विद्वान् और आत्मज्ञानी सम्राट् थे । आत्मज्ञानी होने के कारण ही वे 'विदेह' कहलाते थे । महर्षि अष्टावक्र ने उनमें आत्मज्ञान - सम्यक्ज्ञान का प्रदीप प्रज्ज्वलित किया था । कथानक इस प्रकार है महाराजा जनक ने एक रात्री में एक भयावह स्वप्न देखा । शत्रु ने उनके राज्य पर आक्रमण कर दिया । जनक पराजित हो गए । वे दीन-दरिद्र बने दर-दर के भिखारी बन गए । क्षुधा ने उनको विचलित कर दिया । एक जगह खिचड़ी बंट रही थी । जनक भी याचकों की पंक्ति में लग गए। लेकिन जब उनका क्रम आया तो खिचड़ी समाप्त हो गई । उनको व्याकुल देखकर खिचड़ी परोसने वाले ने बर्तन में शेष खुरचन जनक को
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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