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सदा तथा सर्वप्रथम अभिवन्दनीय बताया गया है- आददीत यतो ज्ञानं तं पूर्वमभिवन्दयेत् (मनुस्मृति, 2 / 117), अर्थात् जिससे ज्ञान ग्रहण करे, उसे सर्व प्रथम अभिवन्दन करे । वैदिक ऋषि का निर्देश है- दिवक्षसो अग्निजिह्वा ऋतावृधः (ऋग्वेद - 10 / 65/7), अर्थात् सत्य के पोषक, तीक्ष्ण प्रवक्ता ज्ञानी देववत् पूज्य होते हैं । उपनिषद् में 'आचार्यदेवो भव' (तैत्ति. उप. 1/11) कहकर माता-पिता की तरह आचार्य की भी पूज्यता का संकेत किया गया है।
वैदिक धर्म में भी कहा गया है
गुशब्दस्त्वन्धकारः स्यात् रुशब्दस्तन्निरोधकः । अन्धकारनिरोधत्वाद् गुरुरित्यभिधीयते ॥
- 'गु' शब्द का अर्थ है- अन्धकार । 'रु' शब्द का अर्थ है उसका निरोधक | अंधकार का निरोध करने से 'गुरु' कहा जाता है। अंग्रेजी में एक शब्द है- अण्डरस्टैण्ड । इस शब्द में गुरु की गुरुता और शिष्य की विनम्रता ध्वनित होती है। 'अण्डर' शब्द का अर्थ 'नीचे' और 'स्टैण्ड' शब्द का अर्थ खड़े होना है । अतः 'अण्डरस्टैण्ड' का अर्थ हुआ, नीचे खड़े होना। लेकिन अण्डरस्टैण्ड का अर्थ समझना होता है । जो लोग अपनी शंकाओं का समाधान पाने और उनको समझने के लिए पादरी (धर्मगुरु) के पास जाते थे, वे एक स्थान - विशेष पर नीचे खड़े हो जाते थे और ऊपर खड़ा पादरी उनको समझाता था । चूंकि समझने वालों के खड़े होने या बैठकर समझने का स्थान नीचे होता था, इसलिए नीचे खड़े होने के अंग्रेजी पर्याय अण्डरस्टैण्ड का अर्थ ही समझना हो गया ।
सभी धर्मों में गुरु को पूज्य स्थान उपलब्ध है। गुरु का आसन सदैव ऊपर और शिष्य का स्थान उसके चरणों में रहा है। विद्या-प्राप्ति अथवा ज्ञान-ग्रहण का यही एकमात्र उपाय भी है। ज्ञानपिपासु शिष्य अथवा व्यक्ति यदि उच्चासन पर बैठे और ज्ञानदाता शिक्षक अथवा गुरु निम्न आसन पर स्थित हो तो यह ज्ञान के आदान-प्रदान की उपयुक्त रीति नहीं है। उस स्थिति में प्रयत्न करके भी ज्ञानपिपासु की ज्ञानपिपासा उपशान्त नहीं हो पाएगी। इसीलिए जिनवाणी में स्पष्ट निर्देश दिया गया हैजस्संतिए धम्मपयाइं सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं
पउंजे ॥ (दशवै. 9/1/12)
एक धर्म की सांस्कृतिक 90