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________________ 'विनय' के ऊपर ही है। इसमें गुरु या आचार्य की महत्ता व पूज्यता को ध्यान में रखकर शिष्य द्वारा रखी जाने वाली सावधानियों और कर्तव्यों का निरूपण प्राप्त होता है। गुरु या आचार्य सदैव वन्दनीय हैं, पूज्य हैं, आदरणीय हैं, नमस्करणीय हैं, स्तुति करने योग्य हैं। इस तथ्य की पुष्टि निमलिखित उद्धरणों से स्पष्ट होती है:जत्थेव धम्मायरियं पासेज्जा, बंदिज्जा, नमंसिञ्जा। (राजप्रश्रीय सू. 4/76)। - जहां भी धर्माचार्य या गुरु दिखाई पड़ें, उन्हें वन्दना करे, और नमस्कार करे। गीर्यत वा गुरुः (उत्तराध्ययन-चूर्णि, पृ. 161)। -जिसकी स्तुति की जाती है, वह गुरु होता है। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार गुरु का अनुशासन दुष्कृतों का निवारक होता है (द्र. उत्तरा. 1/28) गुरु के प्रसन्न होने पर विपुल श्रुत-ज्ञान की प्राप्ति हो पाती है और विनीत शिष्य की कीर्ति का सर्वत्र विस्तार होता है (द्र. उत्तरा. 1/45-46/) गुरुकुल में रहकर, उनके सतत निर्देशन में रहकर, ज्ञानार्जन करने वालों को 'धन्य' कहा गया है- धण्णा गुरुकुलवासं (बृहत्कल्प-भाष्य- 5713)। बौद्ध परम्परा में भी गुरु की पूज्यता का समर्थन इस प्रकार किया गया है:यस्माहि धम्मं पुरिसो विजञा इन्दं व तं देवता पूजयेय। (सुत्तनिपात-20/1) -जिससे धर्म की शिक्षा ग्रहण करे, उसकी पूजा अदि उसी प्रकार करनी चाहिए जिस प्रकार देवता इन्द्र की करते हैं। 'गुरु' या 'आचार्य' ही वह प्रमुख स्रोत है जहां से विद्या या ज्ञानामृत प्राप्त किया जा सकता है। महर्षि व्यास के शब्दों में- न विना गुरुसम्बन्धं ज्ञानस्याधिगमः स्मृतः (महाभा. 12/326/22)। अर्थात् गुरु के बिना ज्ञान या विद्या की प्राप्ति नहीं सम्भव हो पाती। उपनिषद् के ऋषि ने इसके समर्थन में कहा- आचायदिव विद्या विदिता साधिष्ठं प्रापयति (छान्दोग्य उप. 4/9/3), अर्थात् सद्गुरु से सीखी हुई विद्या ही व्यक्ति को अभीष्ट उद्देश्य को पाने में सफल बनाती है। मनुस्मृति में ज्ञानदाता को
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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