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गुरु का गौरव गलूर
(सांस्कृतिक पृष्ठभूमिः)
गुरु सागर के समान होता है और शिष्य घड़े के समान । घड़े को जल से भरने के लिए सागर के समक्ष झुकना, उसमें डूबना पड़ता है। घड़ा यदि सागर के समक्ष झुकने को तैयार नहीं है तो वह कदापि जल से भर नहीं सकता है। इसी तरह शिष्य को अपनी ज्ञान-पिपासा-उपशान्ति के लिए गुरु के समक्ष झुकना पड़ता है। गुरु-चरणों में झुका हुआ विनम्र शिष्य शीघ्र ही ज्ञानामृत का पान करके आत्मतृप्त हो जाता है।
गुरु का सम्मान और उसकी उच्चता को संसार के सभी धर्मों, पन्थों और महापुरुषों ने एक स्वर में स्वीकार किया है। जैन धर्म में शिष्य के लिए गुरु की विनय को उसका मूल धर्म बताया गया है
विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे । विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तवो॥
(विशेषा. भाष्य. 3468) विनय जिन-शासन का मूल है। विनीत ही संयमी हो सकता है। जो विनय से हीन है, उसका क्या धर्म और क्या तप?
भगवान् महावीर की अन्तिम वाणी जिसमें संकलित मानी जाती है, उस उत्तराध्ययन सूत्र के प्रारम्भ में जो अध्ययन (परिच्छेद) है, वह