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________________ में दुःशासन द्वारा चीर-हरण के संकट में द्रौपदी श्रद्धा से प्रभु को स्मरण करती है और भगवान् सूक्ष्म रूप में उपस्थित होकर चीर को इतना लम्बा बढा देते हैं कि दुःशासन थककर स्वयं पाप-कार्य से निवृत्त हो जाता है। भगवान् ही नहीं, इन्द्रादि देव-असुर आदि भी यथासमय धर्मानुकूल चमत्कार करने में सक्षम माने गए हैं। इनके अलावा, योग-साधना के क्रम में प्राप्त होने वाली सिद्धियां भी सामान्य जनता को चमत्कृत करने वाली मानी गई हैं। जहां तक जैन परम्परा का प्रश्न है, इस परम्परा में परमेश्वर संसार-निर्लिप्त होता है, अतः वह कोई चमत्कार नहीं करता। किन्तु तीर्थंकरों का अहिंसामय जीवन ऐसा होता है कि सामान्य मनोविकारग्रस्त जनता को तो चमत्कृत करता ही है। आधिदैविक जगत् के विशिष्ट प्राणी (शासन-देव, यक्ष, देवेन्द्र, असुरेन्द्र आदि, विद्याधर जाति आदि) कभी-कभी मुनष्य-लोक में उपस्थित होकर उपकार या अपकार की दृष्टि से जो कार्य करते हैं, वे भी सामान्य जनता के लिए चमत्कार ही होती हैं। देव आदि में जन्मजात ऐसी क्षमता होती है। वैदिक परम्परा की तरह जैन परम्परा में भी तपोजनित चमत्कारी ऋद्धि-सिद्धियों का होना सम्भव माना गया है। प्रत्येक आत्मा में अनन्त शक्तियां अन्तर्निहित होती हैं, तप द्वारा इन्हें प्रकट किया जा सकता है। ये शक्तियां भी लौकिक चमत्कार का कारण बनती हैं। जैन परम्परा में मन्त्रादि-जनित चमत्कार दैवी चमत्कार के रूप में मान्य हैं। किन्तु इन चमत्कारों में श्रद्धा की प्रबलता का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। जहां श्रद्धा होगी, वहीं कुछ चमत्कार घटित हो पाएगा। श्रद्धा की प्रबलता के कारण ही दैवी शक्तियां आकृष्ट होकर विविध चमत्कार करती हैं। इसीलिए कहा भी है- संदिग्धो हि हतो मन्त्रः (भागवत माहात्म्य, 73)। अर्थात् अश्रद्धा या संदेह-अविश्वास की स्थिति में मन्त्र का प्रभाव नष्ट हो जाता है।
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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