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________________ में बुलाया। प्रह्लाद आए। हिरण्यकशिपु ने खड्ग निकालकर क्रोध से कहा"दुष्ट बालक! आज मेरे खड्ग से तुझे कोई नहीं बचा सकता। पुकार अपने भगवान् को। देखता हूं उसे भी।" निर्भीक प्रह्लाद हंसे और बोले- "पिताजी! उसे पुकारने की आवश्यकता नहीं है। वह तो सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है।आप में, मुझ में, इस खड्ग में, इस खम्भे में, सर्वत्र वही विद्यमान है।" । क्या वे इस खम्भे में भी है?" हिरण्यकशिपु गरजा- “मैं देखता हूं कि हैं कि नहीं।" वह उठा और उसने जोर से एक मुक्का उस खम्भे पर मारा। एक भयंकर शब्द के साथ खम्भा फट गया। उसमें से नृसिंह भगवान् प्रगट हुए। उनका मुंह सिंह का था तथा शेष शरीर मनुष्य का। उन्होंने हिरण्यकशिपु को अपने पंजों में दबा लिया। दरबार के द्वार पर ले जाकर उन्होंने हिरण्यकशिपु के हृदय को अपने नखों से फाड़ डाला। देखते ही देखते अपने को सर्वशक्तिमान् मानने वाला अहंकारी हिरण्यकशिपु कालकवलित हो गया। नृसिंह भगवान् ने प्रह्लाद को अपनी गोद में उठा लिया। उसे प्यार करते हुए वे बोले- “बेटे! इस दुष्ट ने तुझे बड़े कष्ट दिए हैं। मुझे आने में विलम्ब हो गया।" “आप प्रतिपल मेरे हृदय में थे परमपिता!" प्रह्लाद ने कहा"आपने ही प्रतिक्षण मेरी रक्षा की।" भगवन्नाम व भगवद्-भक्ति में दृढ़ श्रद्धावान् मनुष्य सदैव रक्षित होते हैं। [द्रष्टव्यः भागवतपुराण- 7/8/अध्याय, अग्निपुराण 4/3-5, 276/10,13] OOO सभी भारतीय धर्म- परम्पराओं में श्रद्धा-भक्ति से जुड़े चमत्कारों का घटित होना माना गया है और उनमें इस तथ्य के समर्थक अनेक कथानक पढ़े, पढ़ाए, सुने व सुनाए जाते रहे हैं। इन चमत्कारों की वैज्ञानिक व्याख्या सम्भव नहीं है। परन्तु इनकी सत्यता को पूर्णतया नकारना भी सम्भव नहीं है। साधारण पाठक या अध्येता के मन में यह जिज्ञासा भी उठती रही है कि आखिर चमत्कार है क्या? चमत्कार
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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