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________________ गणित लगाया और बोले- “राजन! दैवी प्रकोप से चित्रशाला का सिंहद्वार पुनः पुनः ढह जाता है। देवी नरबलि चाहती है। देवी की इच्छा-पूर्ति पर ही द्वार की स्थिरता संभव है।" "नरबलि! कौन मनुष्य मरना चाहेगा?' श्रेणिक ने सोचा। बहुत सोचा । अन्ततः उन्हें एक मार्ग सूझ गया। उन्होंने नगर में उद्घोषणा कराई- जो भी व्यक्ति बलि के लिए अपने पुत्र को देगा, राजकोष से उसे पुत्र के तौल का स्वर्ण दिया जाएगा। इस राजघोषणा की सर्वत्र निन्दा हुई। परन्तु स्वर्ण का लोभ भी कम न था। यह घोषणा ऋषभदत्त ने भी सुनी। उसने अपनी पत्नी से सलाह करके अपने पुत्र अमरकुमार को नरबलि के लिए राजा को सोंप दिया। पुत्र के तौल का धन लेकर वह सपने संजोता हुआ अपने घर लौट आया। माता-पिता की निर्दयता देखकर अमरकुमार रो उठा। उसने नगरजनों से त्राण/रक्षा की भीख मांगी। परन्तु जिसके अपने माता-पिता ही अपने न हो सके, उसका कौन अपना होता? अमरकुमार को बलि-वेदिका पर लाया गया। ब्राह्मण मन्त्रोच्चार कर रहे थे। कांपते हुए अमरकुमार ने श्रेणिक से प्राण-दान की याचना की। श्रेणिक ने कहा- "बालक! हम तुम्हें बलात् नहीं लाए हैं। तुम्हारे माता-पिता स्वयं तुम्हें बेचकर गए हैं।" असहाय अमर पर मृत्यु का ताण्डव था।उस क्षण उसे मुनियों द्वारा दिया हआ महामंत्र स्मरण हो आया। उसकी आंखों में आत्मविश्वास का तेज उतर आया। उसकी कंपन मिट गई और भय समाप्त हो गया। वह तल्लीनता से नमोकार मंत्र पढ़ने लगा। वधिक ने तलवार से अमर पर वार करना चाहा। लेकिन मंत्र के प्रभाव से वह दूर जा गिरा। दूसरे वधिक ने तलवार उठा कर वार किया तो उसकी भी वही गति हुई। सर्वत्र आश्चर्य फैल गया। राजा और पण्डित अज्ञात भय से भर गए। सभी ने अमरकुमार से क्षमा मांगी। श्रेणिक ने उसे राज्य महल में रखना चाहा। परन्तु अमरकुमार तो संसार का बीभत्स रूप देख चुका था। उसने राजा का प्रस्ताव ठुकरा दिया और यज्ञ वेदी से उठकर उन महामुनियों
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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