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श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् (गीता, 4/39)। -श्रद्धावान् व्यक्ति ही ज्ञान प्राप्त करता है। एतं लोकं श्रद्दधानाः सचन्ते (अथर्व. 6/122/3)। -श्रद्धालु व्यक्ति ही इस संसार का सुख प्राप्त कर पाते हैं। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः (गीता 17/3)।
-यह पुरुष श्रद्धामय है। वह जिसकी (जिसके प्रति श्रद्धा करता है, उसी के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है।
बौद्ध परम्परा में भी श्रद्धा को मुक्ति में उपकारी माना गया है:सद्धाय तरति ओघं। (सुत्तनिपात, 1/10/4) - श्रद्धा से प्राणी भवसागर को तैर जाता है।
जैन परम्परा में मुक्ति-मार्ग 'रत्नत्रय' के अंगभूत तीनों रत्नों में 'सम्यकश्रद्धान' को परिगणित कर, साधक के लिए श्रद्धावान् होना प्रारम्भिक रूप से अनिवार्य माना गया है- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः। तत्त्वार्यश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् (तत्त्वार्थसूत्र- 1/1-2) आचारांग सूत्र में भी कहा गया है- सही आणाए मेहावी (आचारांग, 1/3/4), अर्थात् अर्हन्त की आज्ञा/उपदेश पर श्रद्धाशील व्यक्ति मेघावी होता है।
परमेश्वर का स्तुति-गान करने वाले आचार्यों व कवियों ने परमेश्वरीय श्रद्धा के चामत्कारिक स्वरूप को इन शब्दों में व्यक्त किया है:त्वन्नामकीर्तन-जलं शमयत्यशेषं दावानलम् ।
(भक्तामर स्तोत्र-40) -हे परमेश्वर! तीर्थंकर! तुम्हारे नाम का कीर्तन रूपी जल समस्त कल्पान्तकारी विश्वसंहारक दावानल को भी शान्त कर देता है।
चिठ्ठउ दूरे मंतो तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ। नरतिरिएसु वि जीवा पावंति न दुक्खदोहग्गं॥
(आ. भद्रबाहु-कृत उपसर्गहर स्तोत्र) - नमस्कार मंत्र की तो बात दूर की है, हे परमेश्वर । आपके प्रति किया गया नमस्कार भी अनेकानेक फलों को प्रदान करता है। भक्तिभाव से नमस्कार करने वाले प्राणी तिर्यच आदि योनियों में कभी दुःख व दुर्भाग्य को प्राप्त नहीं करते। चूंकि जैन परम्परा में परमेश्वर प्राणियों के सुख-दुःख में हस्तक्षेप नहीं करता, वह तो संसारातीत होता