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परिपूर्ण उन जूठे बेरों को श्री राम बड़े भाव से खाने लगे:
कन्दमूल फल सुरस अति, दिए राम कहुं आनि । प्रेम सहित प्रभु खाए वारंबार बखानि (अरण्य. 34 ) ।
कहते हैं कि श्री राम को भोजन का वैसा आनन्द कभी न आया था। वे सदैव शबरी के बेरों के स्वाद की प्रशंसा करते । तुलसीदास जी की भाषा में
घर, गुरु गृह, प्रिय सदन, सासुरे भइ जब जहं पहुनाई । तब तहं कहि, सबरी के फलनि की रूचि माधुरी न पाई ॥
यह आस्वाद बेरों का न था । यह आस्वाद था प्रेम का । भक्ति का। जब तक यह धरती और इस पर सृष्टि रहेगी, तब तक शबरी और उसके बेरों की चर्चा होती रहेगी। युग बदल जाते हैं । प्रत्येक प्राणी और वस्तु का स्वरूप बदल जाता है परन्तु प्रेम और भक्ति सदैव अपरिवर्तनशील नूतन रहती है । उसकी महिमा को पौंछने की शक्ति काल में भी नहीं है ।
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[३] विदुर- पत्नी (वैदिक)
वनवास-काल की समाप्ति पर पाण्डवों ने दुर्योधन से अपना राज्य मांगा। दुर्योधन ने एक सूई की नोक टिके, इतना राज्य भी देने से इन्कार कर दिया । न्याय और अन्याय में द्वन्द्व चला। युद्ध की ठन गई । भारतवर्ष को महाविनाश से बचाने के लिए वासुदेव श्रीकृष्ण शान्तिदूत बनकर हस्तिनापुर गए ।
श्रीकृष्ण को प्रभावित करने के लिए दुर्योधन ने उनके स्वागत के लिए हस्तिनापुर को दुल्हन की तरह सजाया । मार्ग पर पुष्प बिछवाए । स्थान-स्थान पर द्वार सजवाएं। अपने भाइयों सहित वह श्रीकृष्ण के स्वागत के लिए नगर-द्वार तक गया।
श्रीकृष्ण आए । हस्तिनापुर में उन्हें अभूतपूर्व स्वागत मिला । उस स्वागत में छिपा कपट श्रीकृष्ण जानते थे । दुर्योधन ने कृत्रिम विनय भाव प्रदर्शित करते हुए श्रीकृष्ण को अपने महल में आमन्त्रित किया ।
जनमधिक की सास्कृतिक एकता