________________
प्रसन्न हुए । उन्होंने शिष्यों से कहा- "इस भाग्यवती नारी को आश्रम के निकट रहने को स्थान- कुटी दे दो तथा इसके लिए अनादि का उचित प्रबंध कर दो ।"
J
भगवान् की भक्ति में तल्लीन, ऋषियों की सेवा करती हुई शबरी अपने जीवन को धन्य बना रही थी । इन्हीं दिनों उधर यह सूचना फैल गई कि दशरथ नन्दन श्रीराम अपनी भार्या और भाई सहित उस जंगलदण्डकारण्य में आएंगें ।
भगवान् श्री राम के स्वागत और उनकी मेजबानी के लिए सभी आश्रमाधिपति ऋषि उत्सुक हो गए। सभी ने अपने-अपने आश्रमों को लीप-पोत कर सजाया । प्रत्येक ऋषि को यह विश्वास था कि श्रीराम उसी के आश्रम में आएंगे। इसके लिए वे दावे भी करते थे ।
शबरी का तो मन - मन उल्लसित हो उठा था । उसे दृढ़ श्रद्धा थी कि श्री राम उसकी झोपड़ी में आएंगे। वह प्रति दिन उस मार्ग को बुहारी जिस से राम आने वाले थे। उस मार्ग पर फूल बिछाती । जंगल से मधुर मधुर फल संचित करके रखती । प्रतिदिन का यह क्रम बन गया था शबरी का । उसके प्राण-प्राण में पल-पल श्री राम के लिए पुकार थी । एक क्षण भी वह श्री राम को विस्मृत नहीं करती थी ।
आखिर एक दिन श्री राम का आगमन हुआ । बड़े-बड़े नाम तपस्वी ऋषियों के आवेदन ठुकराते और सुसज्जित आश्रमों को लांघते श्री राम के चरण शबरी की झोपड़ी पर पहुंचे । भावविह्वल बनी शबरी श्री राम को अपने द्वार पर देखकर अग-जग सब भूल गई । उसका हर्ष उसकी हृदय - गगरी में नहीं समा रहा था। रामचरितमानस में संत सुलसीदास जी शबरी की प्रेम-भक्तिपूर्ण स्थिति का निरूपण इस प्रकार किया हैःप्रेम मगन मुख वचन न आवा पुनि-पुनि पद - सरोज सिर नावा ॥
(रामचरितमानस, अरण्य काण्ड, 33 /5) शबरी ने भगवान् को बड़े श्रद्धाभाव से बैठाया । पश्चात् वह उन्हें भोजन कराने लगी ।
इस भाव से कि कहीं उसके बेरों में कोई बेर खट्टा न हो, पहले वह स्वयं चखती फिर श्रीराम के हाथ पर रखती । प्रेम और भक्ति से
fon s 3