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________________ महर्षि मतंग इस अदृश्य सेवक को देखना चाहते थे। उन्होंने अपने शिष्यों को इसका पता लगाने का निर्देश दिया। दूसरे दिन शबरी को लकड़ियों का गट्ठर ऋषि-आश्रम के निकट रखते हुए शिष्यों ने पकड़ लिया। उसे महर्षि मतंग के पास ले गए। शबरी भय से कांप रहीथी। उसने हाथ जोड़कर कंपित स्वर से कहा-"महर्षि! मुझे क्षमा कर दो। मैं नीच कुल में उत्पन्न शबरी हूं। मैं अन्य किसी प्रकार की सेवा करने योग्य नहीं हूं। इसीलिए मैंने इस प्रकार की सेवा करने का दुःसाहस किया है।" रेत की भिक्षा महात्मा बुद्ध ससंघ चले जा रहे थे। एक बालक जिसकी मुट्ठी में रेत था महात्मा बुद्ध के निकट आया और बोला- मेरी भिक्षा ग्रहण कीजिए, भंते! तथागत ने बालक को देखा। उसकी मुट्ठी में रहे हुए रेत को देखा। उन्होंने अपना पात्र उस बालक के सम्मुख फैला दिया। बालक ने अपनी मुट्ठी का रेत बुद्ध के पात्र में डाल दिया। तथागत का अनुसरण कर रहा संघ बालक की धृष्टता देख कर क्रोधित हो उठा। संघ के कुछ लोग उस बालक को दण्डित करने के लिए उस पर लपके। उसी क्षण तथागत बोले- “रूक जाओ! इस बालक को दण्ड देने का किसी को अधिकार नहीं है। इस बालक को दिया गया दण्ड मुझे दिया गया दण्ड होगा।" उन लोगों के कदम ठिठक गए। वे बोले- "भंते! जिस पात्र में उत्तमोत्तम पदार्थ डालने के लिए अंग-बंग-मगध आदि कितने ही देशों के श्रीसम्पन्न श्रेष्ठी और बड़े-बड़े सम्राट् लालायित रहते हैं, उसी पात्र में इस धृष्ट बालक ने रेत डाल दिया है। इसका अपराध अक्षम्य है।" __ "श्रावकों!"बुद्ध बोले- "स्थूलदृष्टि उत्तम पदार्थ, श्रीसम्पन्नता और बड़े-बड़े सम्राटों को तो देख लेती है लेकिन जो वस्तुतः दर्शनीय है उसे नहीं देख पाती है। उसे देखने के लिए भीतर की आंख की आवश्यकता है।" "भंते! वह दर्शनीय क्या है जिसे स्थूल दृष्टि नहीं देख पाती।" श्रावकों ने प्रश्न किया। "वह है हृदय का प्रेम! कुछ देने की नृत्यपूर्ण उमंग।" बुद्ध बोलते चले गए"तुमने बालक-प्रदत्त रेत को तो देख लिया, लेकिन तुम उस बाल हृदय को नहीं देख पाए। श्रद्धा का ज्वार था उस नन्हे से हृदय में। एक बालक के पास जो हो सकता है, वही तो वह देगा। इस बालक के पास रेत थी। उसने मुझे देना चाहा। उसका भाव देख कर उसका प्रेम-दान ग्रहण करने के लिए मेरा पात्र स्वतः उसके समक्ष फैल गया। उसके नन्हे हृदय-सागर में उठी आनन्द की उर्मियों को स्पर्श कर मुझे भी बड़ा सुख मिला। वह बालक दण्डनीय नहीं- अर्चनीय है।" तथागत का उपदेश सुनकर संघ ने अपनी भूल के लिए प्रायश्चित्त किया। जन ग एवं राधिक प्रग की सास्कृतिक प्रकार
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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