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[१] चन्दनबाला के बाकुले
(जैन) चन्दनबाला राजकन्या थी। अचानक उस पर संकटों के पहाड़ टूट पड़े। उसके पिता का राज्य नष्ट हो गया। पिता को वन जाना पड़ा।माता का करुण अन्त उसने अपनी आंखों से देखा । दुर्भाग्य का अन्त इतने से ही न हुआ। राजकुमारी चन्दनबाला को शाक-सब्जी की भांति बाजार में बिकने का अभिशाप झेलना पड़ा।
एक धर्मज्ञ सेठ धनावह चन्दनबाला के सहायक बने। लेकिन सेठ की पत्नी मूला ने सेठ की अनुपस्थिति में चन्दनबाला को घोरतम यातनाएं दीं। डण्डों से पीटकर, उसके केश कतर डाले। लौह-शृंखलाओं में जकड़ कर उसे तलघर में पटक दिया।
तीसरे दिन सेठ आए। चन्दना को तलघर से निकाला। घर में खाने को कुछ न मिला तो घोड़ों के लिए तैयार किए गए उड़द के बाकुले एक सूप के कोने में डालकर सेठ धनावह ने चन्दनबाला को दे दिए।गृहद्वार पर बैठी चन्दना प्रार्थना करने लगी- “ हे जिनेश्वर देव! मेरे द्वार पर पधारिए। मुझ अभागिन के हाथों आहार लेकर मेरा उद्धार कीजिए।"
तीर्थंकर महावीर उन दिनों घोर तप कर रहे थे। पांच महीने पच्चीस दिन से वे निराहार-निर्जल थे। कौशाम्बी नगरी के राजा शतानीक से लेकर बड़े सेठ-श्रावक तथा श्राविकाएं तीर्थंकर महावीर से भोजन के लिए प्रार्थना करते, लेकिन प्रभु बिना भोजन ग्रहण किए लौट जाते।
__चन्दनबाला ने प्रभु को पुकारा। उसके अन्तर्हृदय से आवाज उठी। हृदय-रस-प्रेम-भक्ति से समन्वित पुकार अनसुनी नहीं होती। वह अवश्य सुनी जाती है। चन्दनबाला की आवाज-पुकार सुनी गई।
तीर्थंकर महावीर भिक्षा के लिए चले। द्वार-द्वार पर उनके लिए आमन्त्रण थे। द्वार-द्वार पर दृष्टि डालते महाप्रभु बढ़ते रहे। बढ़ते रहे उनके अविराम चरण । इसी क्रम में सेठ धनावह का द्वार भी आया। वह द्वार जिस पर चन्दनबाला हथकड़ियों-बेड़ियों में जकड़ी हाथों में उड़द बाकुले लिए थी। उस द्वार के समक्ष प्रभु के अविराम गतिमान् चरण
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