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________________ आचार्य जयवल्लभ-कृत प्राकृत साहित्य 'वज्जालग्गं' में प्रेम के स्वरूप व सुप्रभाव को इस प्रकार व्यक्त किया गया है: पडिवनं जेण समं पुव्वणिओएण होइ जीवस्स। दूरहिओ न दूरे जह चंदो कुमुयसंडाणं॥ (वजालग्ग, 7/4) -पूर्वकृत संस्कारों की प्रेरणा से ही कोई जीव किसी के साथ प्रीति से जुड़ता है, वह दूर रहने पर भी दूर नहीं रहता जैसे चन्द्रमा कुमुदवन से। जा न चलइ ता अभयं, चलियं पेम्म विसं विसेसेइ। (वजालग्ग, 36/7) -स्थायी प्रेम अमृत है और प्रेम की अस्थिरता विष-तुल्य है। उपर्युक्त प्राकृत सूक्तियों का निष्कर्ष यह है कि प्रेम एक दूसरे को जोड़ता है। चन्द्रमा व कुमुदिनी के बीच कितनी ज्यादा दूरी है, फिर भी प्रेम के कारण एक दूसरे के निकट ही प्रतीत होते हैं, यही कारण है कि कुमुदिनी सुदूर-स्थित चन्द्रमा के उदय से विकसित होती है। यह प्रेम जब काल आदि की परिधि में बंधता नहीं, तब अमृतमय हो जाता है। वस्तुतः प्रेम एक विशुद्ध व प्रशस्त भाव है, बशर्ते वह निःस्वार्थ हो । वह त्याग, निरभिमानता, श्रद्धा-भक्ति, समर्पण-भावना के वातावरण में उत्पन्न होता और बढ़ता है। अपने आराध्य के प्रति प्रेम-भक्ति-श्रद्धा की भावना रखकर हम उसकी सच्ची आराधना कर सकते हैं। परिवार, समाज आदि को परस्पर एकसूत्र में जोड़ने वाला भी तत्त्व है- प्रेम । प्रेम-भावना ही वीतरागता के मार्ग में परम विशुद्धता को प्राप्त कर 'आत्मवत् दृष्टि' बन जाती है जिसमें समता के फूल खिलते हैं। विशुद्ध प्रेम का जन्म न संकीर्णता से होता है और न संकीर्णता के लिए होता है। संकीर्णता के बन्धनों का टूटना प्रेम का प्रारम्भ है। यह प्रेम आसक्ति नहीं, मोह नहीं है, अतः कभी किसी को बांधता नहीं, मुक्त करता है। वह व्यक्तित्व के उच्चतम प्रसार का मार्ग प्रशस्त करता है। इसी वैचारिक पृष्ठभूमि में भारतीय विविध विचारधाराओं वैदिक-जैन-बौद्ध-सिख) से सम्बद्ध कथानक यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं जो प्रेम-श्रद्धा-भक्ति के महत्त्व को रेखांकित करते हैं।
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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