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________________ अर्थात् हे भिक्षुओं! सुख का हेतु क्या है? शान्ति (प्रस्त्रब्धि) है। उस शान्ति का हेतु क्या है? वह हेतु 'प्रीति' है। प्रीति-परम्परा का विश्वेषण करते हुए बौद्ध परम्परा में बताया गया है: पमुदितस्स पीति आयति। पीतिमनस्स कायो पस्सम्मति। पस्सद्धकायो सुखं विहरति (संयुत्तनिकाय, 4/35/97), अर्थात् प्रमोद होने से प्रीति होती है, प्रीति से शरीर की स्वस्थता और स्वस्थता से सुखपूर्वक विहार होता है। क्राइस्ट ने प्रेम को ईश्वर का पद प्रदान करते हुए कहा था Love is God. प्रेम परमात्मा है। जैन परम्परा में अहिंसा धर्म की महत्ता आदि के सम्बन्ध में प्रचु उद्धरण प्राप्त होते हैं। 'प्रेम' उसी अहिंसा की अभिव्यक्ति का विशिष्ट प्रकार ही है। इसीलिए भगवान् महावीर ने कहापीत्तिसुण्णो पिसुण्णो। (निशीथ भाष्य, 6212)। अर्थात् प्रेम-शून्य व्यक्ति पिशुन है। वह निन्दनीय है। धार्मिक साधना में तो प्रेम-करुणा, दया आदि सद्भाव अत्यन्त आवश्यक हैं ही। संत, मुनि आदि का हृदय नवनीत (मक्खन) के समान कोमल होता हैनवणीयतुल्लहियया साहू (व्यवहार भाष्य-7/165)। संत तुलसीदास जी ने भी कहा है- संत-हृदय नवनीत समाना । सोह-पूर्ण हृदय वाले वे संतमुनि प्रेम-करुणा की गंगा प्रवाहित करते हैं और क्रूर से क्रूर व्यक्ति भी इनके समक्ष नतमस्तक हो जाता है। भगवान् महावीर निर्विकार थे। भयंकर चण्डकौशिक विषधर सर्प ने उनके शरीर में विष छोड़ा, किन्तु बदले में उसने प्रेम का अमृत पाया, करुणा का दूध पाया। उस दूध के प्रभाव से विषधर विष को भूल गया। ऐसा क्यों हुआ? इसलिए हुआ कि भगवान् महावीर के शरीर का कण-कण प्रेमामृत से परिपूर्ण था । प्राणिमात्र के लिए प्रेम के अतिरिक्त उनमें कुछ नहीं था। रक्त के स्थान पर उनके शरीर में अहिंसा प्रवाहित थी, अतः वे स्वयं भी प्रेमामृत पी सके और औरों को भी पिला सके। यह तथ्य आध्यात्मिक प्रेम-भक्ति के प्रसंग में तो पूर्णतः चरितार्थ होता है।
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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