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________________ 阿 प्रेम है अमृत (सांस्कृतिक पृष्ठभूमिः) धन-संपत्ति, कुल, जाति, शास्त्रीय ज्ञान - ये प्रायः व्यक्ति को अहंकारी बना देते हैं। वह अहंकार व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य एक दीवार बन कर खड़ा हो जाता है और परस्पर प्रेम व सौहार्द के वातावरण को क्षति पहुंचाता है। इसके विपरीत, प्रेम व्यक्ति-व्यक्ति की दूरी को कम करता है, उनके हृदयों को जोड़ता है और सौहार्द के सूत्र में दोनों को बांध देता है । प्रेम ही आध्यात्मिक क्षेत्र में श्रद्धा-भक्ति का रूप धारण कर लेता है। इसी श्रद्धाभक्ति का प्रभाव था कि अहंकारी दुर्योधन के राजवैभवपूर्ण समस्त भोगोपभोगों को ठुकरा कर श्रीकृष्ण ने विदुर-पत्नी के हाथ से केले के छिलके खाए । मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम ने वन में भक्तिमती महासती शबरी के बेर खाए । जैन परम्परा में चन्दना के प्रेमामृत व श्रद्धा-भक्ति-भाव के कारण भगवान् महावीर ने नीरस भोजन स्वीकार किया था । प्रेम परम स्वाद है | प्रेम अनिर्वचनीय रस का अमृत कलश है। प्रेम वह सूत्र है जो हृदय को हृदय से गुम्फित कर देता है। कबीरदास ने कहा जा घट प्रेम न संचरे, ता घट जान मसान । जैसे खाल लुहार की, मांस लेत बिन प्रान ॥ प्रेमशून्य हृदय श्मशान के समान है। जैसे लुहार आंच को 64an pa die op at angsfire vom Tee
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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