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________________ कदमों से दुर्योधन के पास पहुंचा । द्रौपदी पुत्रों के सिर देखकर दुर्योधन प्रसन्नता के स्थान पर पीड़ा में डूब गया। उसने कहा-"यह मेरी एक और पराजय हुई, अश्वत्थामा!" कहते हुए उसने आंखें मूंद लीं। प्रभात हुआ अपने मृत पुत्रों को देखकर द्रौपदी को अपार पीड़ा हुई।पाण्डवों की विजय की प्रसन्नता द्रौपदी के करुण क्रन्दन से धुल गई। पाण्डव-शिविर शोक में डूब गया।द्रौपदी के सम्मुख भीम-अर्जुब सहित पांचों पाण्डव खड़े थे।भीम वे कहा- "द्रौपदी! हमारे पुत्रों का हत्यारा आज सूर्यास्त नहीं देख सकेगा। हम जा रहे हैं उसे खोजवे के लिए "उसे मैं स्वयं दण्डित करूंगी!" द्रौपदी ने कहा "ऐसा ही होगा।' कहकर भीम और अर्जुन अपने पुत्रों के हत्यारे की खोज करने चल दिए। शीघ्र ही उन्होंने ज्ञात कर लिया कि हत्यारा कोई और नहीं, उन्हीं के गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा है। भीम और अर्जुन ने अपत्यामा को खोज निकाला। उसे बब्धवों में बांधकर वे माविदयानन्द महर्षि दयानन्द आर्य समाज के प्रवर्तक थे। उसके केबटे में तार लोगों की धारणा है कि वे बड़े कटोर हदय रहे होचो, परन्तु ये किताबो दबातु वेटपटांग देखें महर्षि दयानन्द एक क्रान्तिकारी पुरुष थे। उन्होंने अनावश्यक धार्मिक रूढ़ियों का खण्डन करके मावस्यक धर्म के तात्त्विक रूप का मण्डन किया था। उन्होंने 'आर्य समाज' की नींव डाली। कुरूढ़ियों और कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठाने के कारण अनेक पुरातनपंथी महर्षि दयानन्द के शत्रु बन बैठे। ये लोग किसी न किसी तरह महर्षि की हत्या करना चाहते थे। इन लोगों ने महर्षि के रसोइए को लोभ के जाल में फंसाया और उसे उनकी हत्या के लिए नियुक कर दिया। रसोइए ने महर्षि दयानन्द के भोजन में सीसा पीस कर मिला दिया। महर्षि ने भोजन किया। उदर में जाते ही कांच ने अपना प्रभाव दिखाया। असह्य वेदना से महर्षि छटपटाने लगे। स्सोइए का विश्वासघात उनसे छिपा न था। लेकिन वे मौन रहे। रसोइये ने यह महापाप किया, पारन्तु वह इसे हज़म न कर सका। वह महर्षि के चरणों पर गिर कर अपने दुष्कृत्य के लिए क्षमा मामाले लप्पा उसने लालच के जाल में फंसने की अपनी कया कह दी। महर्षि दयानन्द ने जेब से कुछ रूपये निकाले और रसोइए को देते हुए बोले"पाचक! भाग जाओ यहाँ से अन्यत्र । अगर लोग सच्चाई जान गए थे वे तुम्हें मार डालेंगे।" आकाश जैसे अनन्त महर्षि दयानन्द की हृदयविशालता और महानता को देखकर, आंसू बहाता हुआ वह रसोइया भाग गया। यह है एक ऐसा उदाहरण जो भारतीय संतों बऋषियों की महान कररूपा-समा का सहखकष्ठ से यशोगान करता है। 00
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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