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________________ मिलेगा । पाण्डवों की जय मुझसे सहन नहीं हो रही है। मैं उनके कटे हुए शीशों पर धूल उड़ती हुई देखना चाहता हूं।" "मैं पांचों पाण्डवों के सिर अवश्य काटूंगा ।" अश्वत्थामा बोला“युवराज! आप मेरी प्रतीक्षा कीजिए । पाण्डवों की विजय के विचार के साथ नहीं, अपितु पाण्डवों के विनाश के सुखद विचार के साथ आप वीरगति प्राप्त कीजिए।" " शीघ्रता करो!” दुर्योधन बोला- “मैं तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा करूंगा। तुम्हारा पथ मंगलमय हो ।” नंगी तलवार हाथ में लेकर अश्वत्थामा पाण्डव-शिविर की ओर चल दिए । अन्धेरी रात में सैनिकों की दृष्टि से बचते हुए उसने शिविर में प्रवेश किया । निद्राधीन द्रौपदी के पांच पुत्रों को पांच पांडव समझकर उसने उनके सिर तलवार से काट डाले। कटे हुए सिरों को लेकर वह तीव्र मंसूर मंसूर एक प्रसिद्ध सन्त हुए हैं। सन्त क्षमाशील होते हैं। मंसूर कितने क्षमाशील थे, उनके जीवन का प्रसंग बता रहा है: मंसूर आत्मा में परमात्मा का दर्शन करने वाले एक सच्चे फकीर थे । वे 'अनलहक' अर्थात् 'मैं ही ब्रह्म हूं' का जप करते थे। स्वयं को ब्रह्म घोषित करने वाले इस फकीर से पुरातनपंथी ईर्ष्या से भर गए। उन्होंने खलीफा से शिकायत की- मंसूर स्वयं को खुदा घोषित करके खुदा का अपमान कर रहा है। उसे दण्ड मिलना चाहिए। खलीफा ने आदेश दिया- मंसूर को पहले दण्डों और पत्थरों से मारा जाए। फिर भी वह अपनी घोषणा को वापिस न ले तो उसके हाथ-पैर काट दिए जाएं। उसके बावजूद भी वह अपनी जिद्द न छोड़े तो उसे सूली पर लटका दिया जाए। खलीफा के दूसरे आदेश का पालन करते हुए मंसूर के पैर काट दिए गए। असह्य पीड़ा के क्षण में भी मंसूर के अधरों पर अनलहक-अनलहक का स्वर था । अन्ततः मंसूर को सूली पर चढ़ा दिया गया। रक्त में नहाए मंसूर ने अपार भीड़ पर एक दृष्टि डाली। फिर उन्होंने आकाश की ओर देख कर खुदा से प्रार्थना की "अय खुदा! इन लोगों को क्षमा कर देना। इन्हें सुख से वंचित मत करना। ये मेरे शत्रु नहीं, उपकारी हैं। इन्होंने मेरी मंजिल को कम करके तुम्हारे और मेरे मध्य शेष दूरी को मिटा दिया है।" तत्पश्चात् अनलहक-अनलहक कहते हुए उस सच्चे आत्मज्ञानी फकीर ने आंखे मूंद लीं। स्वयं को मृत्यु का कष्ट देने वालों के लिए भी सुख और क्षमा की प्रार्थना करने वाले मंसूर सदा-सर्वदा के लिए अमर हो गए। धन्य है मंसूर की तितिक्षा ! क्षमापरायणता ! मंगलप्रार्थना ! 00
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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