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________________ “कामधेनु मुझे चाहिए। विश्वामित्र ने तेवर बदलते हुए कहा"आप इसे नहीं देंगे तो मैं इसे छीन लूंगा। राजा प्रजा का स्वामी होता है। प्रजा की प्रत्येक वस्तु पर उसका अधिकार होता है।" "अपना प्रयास कीजिए!" वशिष्ठ जी बोले। उन्होंने अपने योगबल से एक विशाल सेना तैयार कर दी। विश्वामित्र की सेना वशिष्ठ जी की सेना से युद्ध का साहस न जुटा पाई। विश्वामित्र के अहंकार को चोट लगी। उन्होंने वशिष्ठ जी को पराजित करने का निश्चय कर लिया।" विश्वामित्र ने घोर तप करके शंकर जी को प्रसन्न कर लिया। उन्होंने शंकर जी से अनेक दिव्यास्त्र प्राप्त कर लिये। अब उन्हें विश्वास था कि वे वशिष्ठ जी को परास्त कर देंगे। वे वशिष्ठ जी के पास पहुंचे। वशिष्ठ जी ने अपने ब्रह्मदण्ड से विश्वामित्र को परास्त कर दिया। विश्वामित्र के जीवन का एकमात्र लक्ष्य शेष रह गया थावशिष्ठ जी को पराजित करना । उन्होंने घोर तप करके ब्राह्मणत्व प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। विश्वामित्र जी ने महर्षि वशिष्ठ को अनेक प्रकार के शारीरिक व मानसिक कष्ट दिए। वे अकारण उनके जानी दुश्मन बने हुए थे। उन्होंने उनके सौ पुत्रों को मार दिया। इस पर भी वशिष्ठ जी शान्त-दान्त व क्षमामूर्ति बने रहे। उन्हें विश्वामित्र पर तनिक भी क्रोध नहीं आया। बारबार की पराजय पराजित व्यक्ति के विवेक को नष्ट कर देती है। उसका लक्ष्य शेष रह जाता है-विजय। वह विजय फिर कैसे भी प्राप्त हो। महर्षि विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की हत्या करने का निश्चय कर लिया। पूर्णमासी की रात थी। चांद की चांदनी सृष्टि के कण-कण पर शीतलता बरसा रही थी। परन्तु महर्षि विश्वामित्र का हृदय प्रतिशोध की ज्वालाओं से धधक रहा था। वे महर्षि वशिष्ठ की हत्या करने के लिए चल दिए। महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में पहुंच कर विश्वामित्र ने देखा कि एक स्थान पर वशिष्ठ और उसकी पत्नी बातें कर रहे हैं। विश्वामित्र ने उनका वार्तालाप सुनने का यत्न किया। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अपनी पत्नी से कह रहे थे- "इस सुन्दर चांदनी रात में तप करके भगवान् को सन्तुष्ट करने का प्रयत्न तो विश्वामित्र जैसे बड़भागी ऋषि ही करते हैं।' महर्षि वशिष्ठ के मुख से एकान्त में अपनी प्रशंसा सुनकर विश्वामित्र दंग रह गए। अपने जानी दुश्मन की प्रशंसा! एक ऐसे दुश्मन की DVानक की सारीकाIII 150
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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