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वालों को न केवल क्षमा किया अपितु उनके कल्याण के लिए भी वे चिन्तातुर बने। विभिन्न संस्कृति-सरिताओं के ये कथानक रूपी जलामृत एक जैसा स्वाद- एक जैसी शीतलता और एक जैसी सुगन्ध रखते हैं। विभिन्न कालों
और परम्पराओं में हुए इन महापुरुषों के हृदयतल से उठे एक ही भाव का दर्शन प्रस्तुत घटनाक्रमों के दर्पण में प्रतिबिम्बित हो रहा है।
[१] क्षमामूर्ति भगवान महावीर
(जैन) भगवान् महावीर क्षमा के अवतार थे। साढ़े बारह वर्ष का उनका साधना-काल असंख्य उपसर्गों और परीषहों से पूर्ण रहा। मनुष्यों, पशुओं और देवों ने उन्हें हृदय-दहला देने वाले कष्ट दिए। इस पर भी करुणा और तितिक्षा के मेरूतुंग वे सदैव अविचल-अडोल रहे। उनके क्षमाधर्म को मूर्तिमन्त करता एक प्रसंग यहां उद्धृत किया जाता है।
भगवान महावीर केवलज्ञान की साधना में तल्लीन थे। उन दिनों महावीर के धैर्य-वीर्य और शौर्य की गाथाएं धरा और गगन में व्याप्त थीं। देवराज इन्द्र ने एकदा महावीर की अडोल समाधि और उनकी तितिक्षा की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा- “समस्त ब्रह्माण्ड की शक्तियां एकत्रित होकर भी महावीर को चलायमान नहीं कर सकतीं।"
संगम नामक देवता को देवराज की बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने कहा- “देवेन्द्र! मनुष्य कितना ही बलशाली क्यों न हो, पर देवशक्ति के समक्ष उसकी शक्ति नगण्य है। मनुष्य देवता से नहीं जीत सकता है।"
___ "महावीर अनन्त बली हैं।" इन्द्र बोले- “वर्तमान समय में वे साधना रत हैं। अपनी शक्ति का उपयोग वे कैवल्य के सृजन में कर रहे हैं।कैवल्य ही आत्मा का लक्ष्य भी है। संगम! महावीर के के सम्बन्ध में मैंने जितना भी कहा अत्यल्प है। उनका धैर्य और शौर्य अपरम्पार है। उनकी करुणा और क्षमा की महिमा अकथ्य है।"