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________________ "मैं महावीर की समाधि को तोड दूंगा।" संगम बोला"पार्थिवदेह मानव मुझसे कदापि नहीं जीत सकता। मुझे आज्ञा दीजिए।" ___ "दुराग्रही देव! तुम भी अपना संशय मिटा लो।" इन्द्र बोले"सुमेरू से टकराकर रजकण की जो दशा होती है, वही तुम्हारी भी होगी।" उन्मादी संगम चल पड़ा महावीर को चलायमान करने के लिए। ग्रहों-नक्षत्रों की गति को भंग करता हुआ, रौद्र रूप लिए वह महावीर के पास पहुंचा। अविचल मौन-शांत समाधिस्थ महावीर पर संगम देव ने घोर उपसर्गों की झड़ी लगा दी। देव शक्ति से उसने दिशाओं को धूल से आच्छादित कर दिया। भयानक आंधी उठी। महावीर के कान-नाक और आंखों में धूल भर गई। इस पर भी वे अविचल रहे। संगम को बड़ा आश्चर्य हुआ। - प्रथम आक्रमण में विफल हो जाने पर संगम ने अत्यधिक क्रोध से भरकर हजारों बिच्छुओं, सर्पो और चूहों की सेना तैयार की। बिच्छुओं ने महावीर की देह पर असंख्य दंश मारे। सर्पो ने अपना विष उनकी देह में उतारा । चूहों ने उनके मांस को कुतर-कुतर कर खाना शुरू कर दिया। महावीर की देह से रक्त की धाराएं बह चलीं। इन असह्य पीड़ा के क्षणों में भी वे शान्त-दान्त व अविचल बने रहे। संगम महावीर की इस अकंप समाधि को देखकर आश्चर्य से अभिभूत था। उसने क्रोधित होते हुए वज्रदंत हाथी का रूप धारण किया और महावीर को सूंड में लपेटकर आकाश में उछाल दिया। नीचे गिरने पर वह उनकी देह को पैरों से रोंदने लगा। लेकिन वह उनकी समाधि को नहीं तोड़ पाया। पराजय के कगार पर पहुंचा व्यक्ति अपना प्रत्येक प्रयत्न करता है।वही संगम ने किया।शेर-व्याघ्र आदि हिंस जन्तुओं का रूप बनाकर उस ने प्रभु को नोंचा-खरोसा। भूत-पिशाच का रूप बनाकर क्लेशित किया, परन्तु असफल रहा। । प्रतिकूलताओं में महावीर को अडोल पाकर संगम ने अनुकूलताओं का आश्रय लिया। देवमाया से मौसम को वासन्ती बनाया। देव कन्याओं की विकुर्वणा करके नृत्य-राग-रंग का स्वांग 'रचा। कामदेव को भी कामोन्मादी बना देने वाले राग-रंग भी महावीर को डोला न सके।
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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