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________________ क्रियात्मक रूप में प्रस्तुत करते हैं। दूसरी तरफ, जैन परम्परा के नदीषेण मुनि, जो परमात्मा बनने की प्रक्रिया में निरन्तर अग्रसर हैं, लोकसेवा का कार्य कर देवताओं में भी चर्चित होते हैं । वैदिक व श्रमण- - दोनों परम्पराओं में अध्यात्म-साधना का अन्तिम लक्ष्य मुक्ति की प्राप्ति है । उस लक्ष्य को पाने के लिए साधनाभूत अनेक साधनाएं - तप, जप, ध्यान, भक्ति आदि प्रचलित हैं। सेवा भी उनमें एक साधना है । इसीलिए वैदिक परम्परा के शास्त्रों में सेवा को प्रभु की आराधना बताया गया है। उपर्युक्त कथानकों में इसी परम्परा की सेवापरायणा भक्तिमती महासती शबरी का जीवन-चरित वर्णित है जो सेवा व भक्ति का आलम्बन लेकर सद्गति व मुक्ति की प्राप्ति में अग्रसर है। जैन परम्परा भी यह मानती है कि वैयावृत्त्य / सेवा से कर्म-निर्जरा होकर तीर्थंकर (विकल) परमात्मा की अवस्था और अन्त में मुक्ति (सकल / पूर्ण परमात्मा) की स्थिति प्राप्त होती है । इस प्रकार दोनों परम्पराएं सेवा-भाव को महत्त्व देने की दृष्टि से परस्पर समान विचारधारा का समर्थन करती हैं- जिसकी क्रियात्मक अभिव्यक्ति उपर्युक्त कथानकों में दृष्टिगोचर होती है। निष्कर्षतः उपर्युक्त सभी कथानक भारतीय संस्कृति में समादृत सेवाधर्म के मौलिक सिद्धान्त को हृदयंगम कराते हैं। द्वितीय खण्ड / 151
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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