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प्रमाणित होता है कि वैदिक व जैन - दोनों संस्कृतियों की धाराओं में एक समन्वित महासंस्कृति की जलधारा प्रवाहित हो रही है। दोनों संस्कृतियों का उद्गम-स्रोत एक साझी महासंस्कृति है। इसलिए इन दोनों की विविधता में भी एकता प्रतिबिम्बित हो रही है।
___एक बात और महत्त्व की है जो यहां उल्लेखनीय है। दोनों परम्पराओं ने अपनी-अपनी मौलिक अवधारणा को सुरक्षित रखते हुए इस तथ्य को भी रेखांकित करने का प्रयास किया है कि ईश्वर भी सांसारिक व्यवहार में लोकसेवा को प्रमुखता देता है।
यहां दोनों परम्पराओं की मौलिक अवधारणा क्या है- इसे जानना यहां प्रासंगिक है। जैन परम्परा की मौलिक अवधारणा है- उत्तारवाद, और वैदिक परम्परा में अवतारवाद की अवधारणा को मान्य किया गया है। उत्तारवाद के अनुसार, संसारी प्राणी वीतरागता का पथिक होकर, क्रमशः सांसारिक दशा से ऊपर उठकर प्रमुख कर्मों का क्षय करते ही तीर्थंकर या सामान्य सर्वज्ञ दशा को प्राप्त करता हुआ, अंत में परमपद सिद्ध-बुद्ध-मुक्त अवस्था को प्राप्त करता है। सर्वोच्च अवस्था में पहुंचने के बाद, उसे संसार से कुछ लेना-देना नहीं होता। वह संसार में लौट कर पुनः नहीं आता।
लोकसेवा आदि सांसारिक कार्यों को करने का अवसर उन्हें परमात्मा या तीर्थंकर बनने से पूर्व ही प्राप्त होता है। तीर्थंकर के रूप में भी भौतिक देह में रहने तक वे धर्मोपदेश जैसे परम लोककल्याण का कार्य करते हैं। इसके विपरीत, वैदिक परम्परा में मान्यता यह है कि ईश्वर या परमेश्वर संसार-हित की दृष्टि से, विशेष परिस्थिति में पृथ्वी पर अवतरित होता है और अपनी लीला से सांसारिक कार्यों में संलग्न होता हुआ धर्म का रक्षण व संवर्धन करता है और अपना अभीष्ट कार्य संपन्न कर पुनः अपने लोक में चला जाता है।
उपर्युक्त कथानकों में वैदिक परम्परा के श्रीकृष्ण परमात्मा या परमेश्वर के अवतार हैं और वे आदर्श लोकसेवा का उदाहरण
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