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रूपी देव ने कर्कश स्वर में कहा- “वाह सेवाव्रती नन्दीषण! एक वृद्ध और रूग्ण मुनि बाहर उपवन में असहाय पड़े हैं और तुम यहां भोजन में मस्त हो! सेवा भाव तो कोई तुमसे सीखे।"
नन्दीषेण शान्त बने रहे। तोड़ा हुआ ग्रास रख दिया। तत्काल खड़े हो गए और उपवन की ओर चल दिए। उपवन में पहुंचकर उन्होंने वृद्ध मुनि की सफाई की। बोले-"आप उपाश्रय में पधारिए! मुझे अपनी सेवा का लाभ दीजिए।" मुनि रूपी देव कुपित होकर बोला-“तुम्हें दिखता नहीं है कि मैं कितना अशक्त हो चुका हूं। इस स्थिति में मैं एक कदम भी नहीं चल सकता हूं।"
"तो आप मेरे कन्धे पर विराजिए।" नन्दीषण ने कहा-“मैं आपको उपाश्रय तक ले चलता हूं।"
अत्यन्त सावधानी और विनयभाव से नन्दीषेण मुनि ने उस वृद्ध मुनि को अपने कन्धे पर बैठाया और उपाश्रय की ओर चल दिए। देवता की परीक्षा अभी पूर्ण नहीं हुई थी। उसने नन्दीषेण के कन्धे पर बैठे हुए ही उनके शरीर को दुर्गन्धमय मल-मूत्र से भर दिया। इस पर भी नन्दीषेण के हृदय में घृणा की एक लहर तक न उठी। देवता नन्दीषेण के मनोभावों का बारीकी से अध्ययन कर रहा था। देवमाया से उसने नन्दीषेण के कदम डगमगा दिए। कन्धे पर से वृद्ध मुनि ने कठोर शब्दों से नन्दीषेण की भर्त्सना करते हुए कहा- "देखकर क्यों नहीं चलते! अन्धे हो क्या? सेवा के नाम पर तुम मुझे कष्ट दे रहे हो।"
नन्दीषेण ने विनम्र शब्दों में क्षमा मांगी और संभलकर चलने लगे। देव पराजित हो गया। उसने अपना रूप प्रगट कर दिया। महामुनि के चरणों में नत होकर उसने क्षमा मांगी और उनकी सेवा की प्रशंसा करता हुआ अपने स्थान को लौट गया। इस सेवाव्रत ने नन्दीषण की कुरूपता को जन्म-जन्मान्तरों तक के लिए धो डाला। आयुष्य पूर्ण करके वे देवलोक में गए। वहां से च्यव कर वसुदेव बने । कामदेव के अवतार वसुदेव! जो इतने सुरूप थे कि चौंसठ हजार स्त्रियों ने उन्हें अपना पति माना था। श्रीकृष्ण इन्हीं वसुदेव की पटरानी देवकी के पुत्र थे। [आवयक चूर्णि आदि से]
किया रवा, 115