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एक बार मामा के पुत्रों का विवाह था । नन्दीषेण के हृदय में
भी विवाह करने का लोभ जगा । उसने मामा से अपने हृदय की बात कही। मामा ने उसे आश्वस्त कर दिया कि उसकी अपनी सात पुत्रियां हैं, किसी एक से वह उसका विवाह कर देगा ।
समय आने पर, मामा की सातों पुत्रियों ने नन्दीषेण से विवाह करने की अपेक्षा आत्महत्या को बेहतर समझा । नन्दीषेण का हृदय टूट गया। उसने आत्महत्या करने की ठान ली। उसने घर छोड़ दिया। एक पर्वत से कूदकर उसने अपनी जीवन लीला समाप्त करनी चाही । ज्योंही उसने पर्वत से छलांग लगानी चाही, एक मुनि की दृष्टि उस पर पड़ी
मधुर स्वर से उसे पुकारा- 'रूक जाओ वत्स ! इस अमूल्य मानव-जीवन को व्यर्थ ही नष्ट मत करो ।'
नन्दीषेण के कदम ठिठक गए। पीछे मुड़कर देखा कि शान्त - प्रशान्त एक मुनि उसे पुकार रहे हैं । नन्दीषेण मुनि के पास गया। मुनि ने मनुष्य-जीवन की दुर्लभता का उपदेश देते हुए उसे संयम की महिमा बताई | नन्दीषेण को एक दिशा मिल गई। सही दिशा दशा बदल देती है ।
नन्दीषेण ने मुनित्व धारण कर लिया । उन्होंने बेले-बेले पारणा करने का संकल्प लिया। गुरु ने उन्हें सेवाव्रत प्रदान करते हुए कहा" नन्दीषेण ! सेवा परम मेवा है । सेवा को अपने जीवन का सूत्र बनाओ । अग्लान भाव से की गई सेवा मोक्ष का द्वार है ।"
गुरु की सीख को नदीषेण ने आत्मसात् कर लिया । वे तनमन से अग्लान भाव के साथ ग्लान, वृद्ध और रोगी मुनियों की सेवा में तत्पर रहने लगे। उनकी सेवा की महिमा चारों ओर फैलती गई।
एक बार देव-परिषद् में देवराज इन्द्र ने नन्दीषेण मुनि के सेवा भाव की भूरि-भूरि प्रशंसा की। एक शंकालु देवता को इन्द्र के कथन पर विश्वास न हुआ । उसने नन्दीषेण के सेवाभाव की परीक्षा लेने का निश्चय किया ।
देवता धरती पर आया । उसने एक वृद्ध ग्लान मुनि का रूप बनाया और रत्नपुर नगर के बाहर उपवन में लेट गया । वैक्रिय लब्धि से उसने अपना एक अन्य रूप - युवा मुनि का बनाया और नन्दीषेण के पास पहुंचा । नदीषेण मुनि अभी बेले का पारणा करने के लिए बैठे ही थे । मुनि
जैन धर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक एकता / 144