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________________ प्रसिद्ध साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द ने सेवा को आनन्द का कारण स्वीकृत करते हुए कहा था-सच्चा आनन्द, सच्ची शान्ति केवल सेवा व्रत में है। वही अधिकार का स्रोत है, वही शक्ति का उद्गम है। सेवा ही वह सीमेंट है जो दम्पति को जीवन-पर्यन्त स्नेह और साहचर्य में जोड़ कर रख सकता है। भारतीय संस्कृति की अंगभूत जैन व वैदिक- इन दोनों परम्पराओं में सेवा-धर्म की महत्ता को मुक्तकण्ठ से स्वीकारा गया है। सर्वप्रथम वैदिक परम्परा को लें। भागवत पुराण में कहा गया है तप्यन्ते लोकतापेन साधवः प्रायशो जनाः। परमाराधनं विद्धि तद्धि पुरुषस्याखिलात्मनः ॥ (भागवत पु. 8/7/44) -परोपकारी सज्जन जनता का दुःख दूर करने के लिए स्वयं दुःख उठाते हैं, परन्तु यह दुःख नहीं है क्योंकि उनका परोपकार रूपी कार्य सर्वान्तर्यामी परमेश्वर की ही आराधना है। लोकसेवा पूर्णतः परोपकार का कार्य है, इसलिए यह भी ईश्वरीय आराधना का प्रमुख साधन है। विशेषकर, अपने पूज्यों, वृद्धों और श्रद्धेयों की सेवा से तो महान् सुखद लाभ मिलता है। महाभारत में कहा गया है- वृद्धशुश्रूषया शक्र! पुरुषो लभते महत् (महाभा. 12/215/34) अर्थात् बड़े-बूढे लोगों की सेवा से महान् लाभ मिलता है। महाभारत में ही अन्यत्र कहा गया है- मेधावी वृद्धसेवया (महाभा. 13/149/11), तथा बुद्धिमान् वृद्धसेवया (महाभा. 3/313/48)- अर्थात् वृद्धों की सेवा से व्यक्ति मेधावी व बुद्धिमान् होता है। इसी तथ्य को मनुस्मृतिकार ने इस प्रकार व्यक्त किया है अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसे विनः । चत्वारि तस्य वर्धन्ते, आयुर्विद्या यशो बलम् ॥ . (मनुस्मृति, 2/121) -बड़े-बूढ़ों की सेवा एवं उनके प्रति अभिवादन आदि विनयपूर्ण क्रिया करने वाले व्यक्ति की चार चीजें बढ़ती हैं:- 1. आयु, 2. विद्या, 3. कीर्ति, और 4. शारीरिक व मानसिक बल। जैन परम्परा में भी सेवा को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। सेवा को वैयावृत्त्य नाम से अभिहित करते हुए इसकी महनीयता के > < न गi Tक्षिक धर्म की सांस्कृतिक एकI/142
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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