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कुछ उद्धरण यहां उदाहरणार्थ प्रस्तुत किये जा रहे हैं
यस्स पाणे दया नत्थि, तं जञा वसलो इति । (सुत्तनि. 1/7/2) - जिसके मन में दया (करुणा) नहीं, उसे शूद्र (वृषल) समझना चाहिए। बौद्ध साहित्य 'विसुद्धिमग्ग' में कहा गया है कि विरोधी पर भी करुणा करनी चाहिए।
'करुणा' के स्वरूप विषय में भी सभी विचारधाराएं एकमत दृष्टिगोचर होती हैं। विसुद्धिमग्ग (बौद्ध साहित्य) में 'दूसरों को दुःख को देख कर हृदय के अनुकम्पित होने' को 'करुणा' बताया गया है। जैन आचार्य हेमचन्द्र का भी यही अभिमत है
दीनेष्वार्तेषु भीतेषु याचमानेषु जीवितम् । प्रतीकारपरा बुद्धिः कारुण्यमभिधीयते ॥
(हैमयोगशास्त्र 4 / 120) - दीन, पीड़ित, भयभीत, एवं जीवन की याचना करने वाले प्राणियों के दुःख को दूर करने की भावना को 'करुणा' कहा जाता है। इसी वैचारिक पृष्ठभूमि में, जैन व वैदिक- इन दो परम्पराओं में प्रत्येक से सम्बद्ध एक-एक कथानक यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं। भगवान् श्री अरिष्टनेमि तथा शबरी ने अपने हृदय की करुणा
के समक्ष विवश होकर अपनी-अपनी प्रसन्नताओं को तिलांजलि देकर मूक जीवों के प्राणों की रक्षा की तथा स्वयं वन का मार्ग चुन लिया। दोनों कथाओं की समानता व एकस्वरता मननीय है ।
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भगवान् अरिष्टनेमि
(जैन)
भगवान् श्री अरिष्टनेमि जैन जगत् के बाईसवें तीर्थंकर थे। शौरीपुर - नरेश समुद्रविजय उनके पिता थे। उनकी माता का नाम शिवा था । समुद्रविजय के लघुभ्राता वसुदेव थे। श्रीकृष्ण और बलराम वसुदेव के पुत्र थे । अरिष्टनेमि सांसारिक मोह - ममत्व से ऊपर थे । युवा होने पर भी उन्होंने विवाह नहीं किया । माता शिवा और पिता समुद्रविजय पुत्र की इस विरक्ति से विह्वल थे । वे चाहते थे कि उनका पुत्र विवाह रचाए और राज्य
जैन धर्म एवं कि धर्म की सास्कृतिक एकता 136