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________________ अहिंसा सव्वपाणानं अरियो ति पवुच्चति (धम्पपद, 19/15) अर्थात् 'अहिंसा' को एक आर्य (श्रेष्ठतम) धर्म के रूप में स्वीकृत किया गया है। निष्कर्ष यह है कि समग्र भारतीय संस्कृति ने अहिंसा को परम धर्म के रूप में प्रतिष्ठित किया है। इसी दृष्टि से जैन व वैदिक- दोनों संस्कृतियों में भी इसे महनीय स्थान प्राप्त हुआ। महाभारत के प्रणेता वेदव्यास ने कहा था अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परं तपः। अहिंसा परमं सत्यं, यतो धर्मः प्रवर्तते॥ ___ (म.भा. 13/115/23) -अहिंसा परम धर्म है। अहिंसा परम तप है। अहिंसा परम सत्य है। क्योंकि अहिंसा से ही धर्म प्रवर्तित होता है। ____जैन परम्परा में भी इसी तरह के भाव प्रकट करते हुए अहिंसा को परम धर्म के रूप में मान्यता दी गई है अहिंसा परमो धर्मः (लाटी संहिता, श्रावकाचार संग्रह-3/1)। इस दृष्टि से जैन पुराणकार ने व्यावहारिक अनिवार्य हिंसाजनित दोषों की विशुद्धि के लिए, मैत्री-करुणा आदि सद्भावनाओं से पोषित अहिंसक आचरण को महत्त्वपूर्ण माना है (द्र. आदिपुराण- 39/143-148)। अहिंसा की जन्मदात्री करुणा है। कोमल हृदय करुणा का उत्पत्तिस्थान है। हृदय की कोमलता जब इतनी विस्तृत हो जाए कि उसमें स्वार्थ के झाड़-झंखाड़ों के लिए कोई स्थान न बचे तो करुणा के फूल सम्पूर्ण सुगंध के साथ महक उठते हैं। वह हृदय उन फूलों की सुवास से सारे जगत् को सुवासित करने को बाध्य हो जाता है। समस्त प्राण उसे अपनी धड़कन प्रतीत होने लगते हैं। अहिंसा प्रयत्नसाध्य नहीं है, वह तो हृदय की विवशता है। फिर बेशक उसके लिए मनुष्य को अपने ही अनायास-प्राप्त सुखों को ही क्यों न ठुकरा देना पड़े। 'करुणा' की महनीयता को जैन, बौद्ध व वैदिक-सभी परम्पराओं में एक स्वर में स्वीकारा गया है। महाभारत-प्रणेता महर्षि वेदव्यास ने कहा- अनुक्रोशो हि साधूनां सुमहद धर्मलक्षणम् (महाभा. 13/5/23)- अर्थात् अनुकम्पा, सज्जनों का महनीय धर्म है। बौद्ध साहित्य तो करुणा के यशोगानों से भरा हुआ है (द्रष्टव्यः सुत्तनिपात- मेत्तसुत्त आदि)। जीप ए 135
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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