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सान्त्वना दी- "धैर्य धारण करो पक्षी! भय को भूल जाओ! तुम मेरे शरणागत हो! और शिवि का शरणागत सदैव अभय होता है।" . कुछ देर बाद बाज़ दरबार में आया । कबूतर को शिवि की गोद में देखकर बाज़ बोला-“महाराज! यह कबूतर मेरा आहार है। आप तो बड़े न्यायप्रिय हैं। करुणाशील हैं। मैं बहुत भूखा हूं। मेरे साथ न्याय कीजिए। मेरा आहार मुझे लौटा दीजिए।"
. राजा शिवि बोले-“बाज़! जो मनुष्य समर्थ होते हुए भी शरणागत की रक्षा नहीं करते या लोभ अथवा भय से उसे त्याग देते हैं उन्हें ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है। मैं इस महापाप का आधार नहीं बनना चाहता हूं। तुम भूखे हो तो तुम्हें भोजन अवश्य मिलेगा।"
बाज़ ने कहा-“राजन्! मैं मांसाहारी पक्षी हूं।मुझे मांस चाहिए। ताजा मांस! क्या आप ताजे मांस का प्रबन्ध कर सकते हैं?"
___ "क्यों नहीं, अवश्य!" शिवि बोले-"मैं शरणागत धर्म की रक्षा के लिए तुम्हें अपने शरीर का मांस दूंगा । मेरा यह नश्वर शरीर यदि किसी की रक्षा के हित व्यय होता है तो इससे बढ़कर मेरे लिए अन्य कोई प्रसन्नता नहीं हो सकती है। कहो, क्या तुम्हें मेरे शरीर का मांस स्वीकार्य है?"
“मुझे स्वीकार है।' बाज़ बोला-"आप कबूतर के वजन का मांस मुझे दीजिए। मुझे अधिक नहीं चाहिए।” महाराज शिवि ने एक तराजू मंगाया। एक पलड़े में उन्होंने कबूतर को रख दिया और दूसरे पलड़े में वे अपने शरीर का मांस तलवार से काट-काट कर रखने लगे। लेकिन देवमाया के कारण कबूतर का वजन बढ़ता चला गया। बहुत-सा मांस रखने पर भी कबूतर का पलड़ा अपने स्थान से नहीं हिला।
महाराज शिवि ने देह के ममत्व को पूर्णतया त्याग दिया। वे उठे और कबूतर के वजन को पूर्ण करने के लिए दूसरे पलड़े में स्वयं बैठ गए।
एकाएक दृश्य बदल गया। आकाश में देव-दुंदुभियां बजने लगीं। महाराज शिवि की करुणा, न्याय और शरणागतवत्सलता की जयजयकार करते हुए देवगण आकाश से धरती पर उतर आए। इन्द्र और अग्निदेव ने अपने रूप में प्रगट होकर शिवि के चरण पकड़ लिए। देवराज
माग सागर 1310