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राजाज्ञा का अनुचरों ने अमन से पालन किया। राजा मेघरथ ने एक पलड़े में कबूतर को रख दिया। वे अपनी देह का मांस काट-काट कर तराजू के दूसरे पलड़े में रखने लगे। प्रजा और राजपरिवार में हाहाकार मच गया। देवलोक के देवता अदृश्य रूप से सांस साधे देवलोक की पराजय और धरती की जय को देख रहे थे। समय स्तंभित हो ठहरसा गया था। - आश्चर्य! बहुत सा मांस तराजू पर रख देने पर भी कबूतर का पलड़ा हिला तक नहीं। महाराज मेघरथ उठे और कबूतर के समानान्तर पलड़े में बैठ गए।
बाज़ रूपी देव का हृदय हिल उठा।आकाश में देवगणों ने पुष्प वर्षा करके मेघरथ की करूणा की जयजयकार की। देवमाया सिमट चुकी थी। परीक्षक देव मेघरथ के चरणों में गिरकर क्षमा मांग रहा था।
यह है जैन कथा साहित्य के पृष्ठों पर अंकित एक ऐसा चरित्र जो करुणा के देवता मेघरथ की महानता का यशोगान उच्च-स्वर से कर रहा है। [त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित मे]
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[2] महाराजा शिवि
(वैदिक)
राजा शिवि भगवद्भक्त और शरणागतवत्सल राजा थे। उनकी ख्याति धरती से आकाश तक फैली हुई थी। एक बार देवराज इन्द्र ने शिवि की परीक्षा लेने का विचार किया। उन्होंने अग्निदेव को इस कार्य में अपना सहायक बनाया। इन्द्र ने बाज़ का रूप बनाया और अग्निदेव कबूतर बने। बाज रूपी इन्द्र कबूतर रूपी अनिदेव पर झपटे । भयाकुल कबूतर मृत्यु से बचने के लिए आकाश में ऊंची-नीची उड़ानें भर रहा था। महाराजा शिवि अपने दरबार में बैठे राजकाज में व्यस्त थे। उसी समय वह कबूतर उनकी गोद में आकर गिरा । उसके नेत्रों में मृत्यु के भय की परछाइयां तैर रही थीं। उसे देखकर शिवि करुणार्द्र हो उठे। उन्होनें प्रेमपूर्ण स्वर में कबूतर को
जानधर्म एवं वैदिक धर्म की सांस्कृतिक व 130