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________________ देवता धरती पर आया। उसने देवमाया के दो रूप बनाए एक कबूतर का और दूसरा बाज़ का । महाराज मेघरथ अपने दरबार में बैठे थे। वे किसी विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रहे थे। सहसा उनकी गोद में एक कबूतर आकर गिरा । कबूतर भय से कांप रहा था। उसकी आंखों में प्राण-रक्षा की प्रार्थना थी। करूणा के देवता मेघरथ ने कबूतर की आंखों की भाषा पढ़ ली। उन्होंने अत्यन्त प्रेम से उसे सहलाते हुए कहा-"धैर्य धरो पक्षी! भय को भूल जाओ। तुम उचित शरण में आ गए हो। तुम मेरे शरणागत हो। और मैं शरणागत की रक्षा प्राण देकर भी करता हूं।" कबूतर आश्वस्त हो गया। उसी क्षण धड़धड़ाता हुआ बाज़ दरबार में आया। उसकी आंखों में खून था। उसने मनुष्य की भाषा में कहा-“राजन्! यह कबूतर मेरा शिकार है। यह मुझे दे दीजिए। मैं कई दिनों का भूखा हूं। इसे खाकर अपनी क्षुधा शान्त करूंगा।" मेघरथ बोले-“पक्षिराज! यदि यह तुम्हारा शिकार है तो मेरा शरणागत भी है। और किसी भी प्राणी पर भक्षक की अपेक्षा रक्षक का अधिक अधिकार होता है।" रही तुम्हारी भूख की बात । मेरी पाकशाला में विभिन्न खाद्य पदार्थ तैयार हैं। तुम भरपेट भोजन कर सकते हो। __ "मैं मांसाहारी पक्षी हूं।' बाज़ बोला-"मांस ही मेरा भोजन है। क्या तुम्हारी पाकशाला में मांस पकता है?" . "नहीं!" मेघरथ बोले – “मेरी पाकशाला में मांस नहीं पकता।" "मुझे मांस चाहिए।' बाज़ ने दृढ़ता से कहा-"कबूतर के तौल का मांस! यदि मुझे न मिला तो मैं मर जाऊंगा। आप ने मेरा भोजन छीना है। अब आप ही उसका प्रबंध कीजिए।" मेघरथ धर्मसंकट में फंस गए। मांस का प्रबन्ध! किसी के मांस की तो वे कल्पना ही नहीं कर सकते थे। उन्होंने सोचा । बहुत सोचा। अन्ततः उन्होंने समस्या का हल प्राप्त हो गया। वे बोले- "मैं अपना मांस तुम्हें दूंगा!" - "मुझे स्वीकार है।' बाज ने कहा। दरबारी जन बाज की धृष्टता पर क्रोधित हो उठे। वे उसे मारने को लपके। लेकिन मेघरथ ने दृढ़ता से सभी दरबारियों को शान्त कर दिया। उन्होंने अनुचरों को आदेश दिया कि छुरी और तराजू दरबार में लाए जाएं। तितीय गणरादु :29
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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