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'धर्मस्य दया मूलं' (प्रशमरतिप्रकरण, 168)-धर्म का मूल 'दया' है। बौद्ध परम्परा में भी इसे महनीय स्थान प्राप्त हुआ है। बौद्ध साहित्य में कहा गया है- सर्वेषु भूतेषु दया हि धर्मः (बुद्धचरित, 9/10)- अर्थात् सभी प्राणियों के प्रति दया भाव ही 'धर्म' है।
उक्त भारतीय सांस्कृतिक विचारधारा की पृष्ठभूमि में वैदिक व जैन- इन दो परम्पराओं में प्रत्येक से सम्बद्ध एक-एक कथानक यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।
जैन व वैदिक- इन दो संस्कृतियों में प्राप्त एकसमान चरित्र और करुणा का एकसदृश स्थान दोनों संस्कृतियों की एकात्मकता-एकरसता और एकस्वरूपता को सिद्ध करते हैं। देखिए-महाराज मेघरथ और महाराज शिवि के एकसदृश कथानक और उनसे टपकता दया का अमृत भाव ।
[१] राजा मेघरथ
(जैन) अतीव प्राचीन समय में पुण्डरीकिणी नाम की एक नगरी थी। वहां पर राजा धर्मरथ राज्य करते थे। धर्मरथ न्यायशील और प्रजावत्सल राजा थे। उनके दो पुत्र थे। बड़े पुत्र का नाम मेघरथ और छोटे का नाम दृढ़रथ था। आयु के तृतीय चरण में राजा धर्मरथ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र मेघरथ को राज्य-भार सोंप दिया। वे आत्मकल्याण के लिए मुनि बनकर साधनारत हो गए।
___ मेघरथ ने कुशलता से राज्य संचालन किया। वे स्वयं को शासक नहीं, अपितु शासितों का सेवक मानते थे। धन-धान्य की दृष्टि से उन का राज्य सम्पन्न बन गया था। राजा मेघरथ महान् न्यायशील और करूणा के अवतार माने जाते थे। उनके राज्य में शेर और गाय एक घाट पर पानी पीते थे।
एक बार स्वर्गलोक में देव-सभा जुड़ी थी। देवराज इन्द्र ने राजा मेघरथ की न्यायशीलता और करुणाशीलता की भूरि-भूरि प्रशंसा की। एक देवता को धरती के साधारण मानव की यह प्रशंसा पसन्द न आई। उसने घोषणा की- मैं मेघरथ को करूणा के मार्ग से भ्रष्ट कर दूंगा।
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