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स्वतः अन्तर्निहित होती हैं। वैदिक परम्परा के पुरोधा मनीषियों ने इसी तथ्य को पुष्ट करते हुए कहा- आत्मवत् वर्तनं यत् स्यात्, सा दया परिकीर्तिता (भविष्यपुराण, 1/2/158) अर्थात् अपने जैसा बर्ताव करना 'दया' है। कूर्मपुराण (2/15/31) तथा पद्मपुराण (3/54/29) आदि में भी यही भाव प्रकट किया गया है। एक वैदिक पुराण में 'दया' की जगह 'अहिंसा' शब्द का प्रयोग किया है- आत्मवत् सर्वभूतेषु यो हिताय प्रवर्तते । अहिंसैषा समाख्याता वेदसंविहिता च य॥ (स्कन्द पुराण - 162/55/15) अर्थात् प्राणियों को आत्मवत् समझकर एक प्राणी द्वारा दूसरे प्राणी के प्रति की जाने वाली हितकारी प्रवृत्ति को 'अहिंसा' कहते हैं जो वेद-समर्थित है। जैन परम्परा के महान् आचार्य हेमचन्द्र ने इसी भाव को इस प्रकार प्रकट किया है- .
आत्मवत् सर्वभूतेषु सुखदुःखे प्रियाप्रिये। चिन्तयन् आत्मनोऽनिष्टां हिंसामन्यस्य नाचरेत् ॥
(हैम. योगशास्त्र-2/20) -सभी प्राणियों को आत्मवत् समझते हुए, ऐसा चिन्तन करे कि मेरी तरह अन्य प्राणियों को भी सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है। इस विचारधारा को अपनाते हुए किसी भी अन्य प्राणी की हिंसा से निवृत्त होना चाहिए।
भगवान् महावीर ने कहा- मा हणे पाणिणो पाणे (उत्तरा. सू. 6/7)-किसी भी प्राणी को मत मारो। वैदिक ऋषि की भी उद्घोषणा हैमा हिंस्यात् सर्वभूतानि (यजुर्वेद 13/47)। प्रायः यही शब्द और भाव महाभारत में प्रकट किये गए हैं- न हिंस्यात् सर्वभूतानि (महाभा. 12/ 278/5)। तात्पर्य है कि सभी प्राणी अवध्य हैं।
'दया' अहिंसा का ही एक विशिष्ट रूप है। इसलिए भारतीय संस्कृति में इसे मौलिक स्वतंत्र धर्म के रूप में व्याख्यायित किया गया है। वैदिक परम्परा में माना गया:- दयेति मुनयः प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम् (कूर्मपु. 2/15/31, पद्मपु. 3/54/29)। अर्थात् मुनियों ने दया को धर्म का साक्षात् (प्रमुखरूप से) लक्षण माना है। जैन परम्परा ने भी इसी स्वर का उद्घोष करते हुए कहा- धम्मो दयाविसुद्धो (बोधप्राभृत. 28) अर्थात् धर्म की शुद्धता है- दया। आचार्य उमास्वाति के मत में
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