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________________ आचार्य शंकर उपास्यैकत्वेऽपि उपासनाभेदो धर्मव्यवस्था च भवति, यथा द्वे ना? एकं नृपतिमुपास्ते, छत्रेणान्या चामरेणान्या। (ब्रह्मसूत्र- 3/3/11 पर शांकर भाष्य)। - यद्यपि उपास्य एक ही है, फिर भी उपासना के भेद अनेक हो सकते हैं। जैसे एक ही राजा की दो सेविका स्त्रियां हों, उनमें से एक छत्र धारण करके तो दूसरी चंवर दुला कर सेवा करती है (इसी प्रकार, विविध उपासनाएं एक ही उपास्य/आराध्य की उपासना में सहभागी हैं)। जैनाचार्य कुन्दकुन्द णाणी शिव परमेट्ठी सव्वण्हू विण्हु चउमुहो बुद्धो। अप्पो वि य परमप्पा कम्मविमुक्को य होइ फुडं॥ (भावपाहुड, 151) - आत्मा ही कर्मविमुक्त होकर ‘परमात्मा' होता है। उसे ही ज्ञानी, शिव, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, विष्णु, चतुर्मुख (ब्रह्मा) व बुद्धइन विविध नामों/विशेषणों से पुकारते हैं। जेनाचार्य समन्तभद्र स्मयेन योऽन्यानत्येति, धर्मस्थान् गर्विताशयः। सोत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकैर्विना॥ (रत्नकरण्डश्रावकाचार-1/26) - जो व्यक्ति अभिमान या गर्व के कारण, अन्य धर्म के अनुयायियों का (तिरस्कार आदि द्वारा) अतिक्रमण करता है, (उनकी आस्था को चोट पहुंचाता है, वह धर्म का अतिक्रमण कर रहा होता है, क्योंकि धार्मिकों से ही धर्म का अस्तित्व है। प्रथम रड/119
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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