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________________ से परस्पर बंधी हैं। अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् मौलिक मान्यताओं में वैमत्य भले ही हो, दोनों मूलभूत आदर्शों से बंधी हुई दृष्टिगोचर होती हैं । प्रस्तुत कृति के तीसरे खण्ड (सिद्धान्त समन्वय) में 4 से अधिक ऐसे सांस्कृतिक मूल्यों, नैतिक आदर्शों व चिरन्तन सत्यों को संकलित कर प्रस्तुत किया गया है जो दोनों परम्पराओं में समानतया आदृत हुए हैं। पोषक प्रमाणों के रूप में दोनों परम्पराओं के सर्वमान्य शास्त्रों, ग्रन्थों से विशिष्ट सन्दर्भो को उद्धृत किया गया है। इस तरह, दोनों परम्पराओं की सांस्कृतिक एकता एवं उनके समन्वित रूप को प्रतिबिम्बित करने का प्रयास अग्रिम दो खण्डों के माध्यम से किया गया है। परस्पर समन्वय के पुरोधा मनीषी दोनों परम्पराओं को परस्पर समीप लाने में, दोनों की अनेकता में भी एकता को रेखांकित करने में, और उनकी विविध मान्यताओं में अनुस्यूत समस्त आदर्शों व मूल्यों को उद्घाटित करने में, दोनों परम्पराओं के अनेक विशिष्ट आचार्यों, मनीषियों का योगदान रहा है जो अविस्मरणीय है। वैदिक परम्परा में वैदिक ऋषि, महर्षि व्यास, महाकवि कालिदास, आचार्य शंकर आदि ऐसे विशिष्ट आचार्य हैं जिन्होंने दोनों संस्कृतियों की समन्वयात्मक प्रवृत्ति को परिपुष्ट किया है। इसी तरह, जैन परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द, आ. समन्तभद्र, आ. सिद्धसेन, आ. सोमदेव, आ. नेमिचन्द्र, आ. हरिभद्र व आ. हेमचन्द्र आदि मनीषियों ने सांस्कृतिक समन्वय की दिशा में उल्लेखनीय योगदान किया है। उक्त आचार्यों की वैचारिक परम्परा को प्रवर्तित रखना वर्तमान में भी अत्यधिक आवश्यक है ताकि परस्पर सम्मान-सहिष्णुता-उदारता की पृष्ठभूमि में एक सुखद सौहार्दपूर्ण वातावरण निर्मित हो सके। - जैन धर्मादिक धर्म की सालगिता 116
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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