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________________ दूसरे शब्दों में कथा-साहित्य उतना ही प्राचीन है जिनता स्वयं मानव । कथा के प्रति मानव का सहज आकर्षण रहा है। फलस्वरूप जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें कहानी की सरसता अभिव्यक्त नहीं हुई हो। निश्चय ही कहने और सुनने की उत्कण्ठा सार्वभौम रही है। इसमें जिज्ञासा और कुतूहल की ऐसी अद्भुत शक्ति समाहित है जिससे यह आबालवृद्ध, सभी के लिए आस्वाद्य है। जन-मानस का प्रतिनिधित्व करने वाली कथाएं सांस्कृतिक चेतना की प्रबुद्ध सांसें हैं, अतः संस्कृति को सुरक्षित रखने में कथा की उपादेयता सर्वथा संगत है । कथा-कहानी मनुष्य के लिए एक अपूर्व विश्रान्ति का साधन है। आज भी इसकी उक्त विशेषता में कोई अन्तर नहीं पड़ा है। यही कारण है कि प्रमुख भाषाओं के साहित्य कथा-कहानियों से भरे पड़े हैं। भारतीय साहित्य के स्रष्य प्राचीन काल से ही साहित्य की इस विधा को अपनी रचनाओं से समृद्ध करते रहे हैं। वैदिक साहित्य, उपनिषत्साहित्य, रामायण, महाभारत आदि में अनेकानेक आख्यान भारतीय कथा-साहित्य की परम्परा को रूपायित करते हैं। कथा-कहानियों, आख्यान आदि को साहित्य में तो प्रतिष्ठा मिली ही है, लोक-मानस में भी श्रुति-परम्परा से अविच्छिन्न रूप से वे प्रवाहमान रहें हैं। वैदिक परम्परा हो या जैन परम्परा, दोनों में ही कथा-विधा को फलने-फूलने का पूर्ण अवसर प्राप्त हुआ है। इन दोनों परम्पराओं के कथा-साहित्य में भारतीय संस्कृति के नैतिक आदर्शों, धार्मिक मान्यताओं, रीति-रिवाजों, ऐतिहासिक तथ्यों व चिरन्तन सत्यों का प्रतिबिम्ब स्पष्ट झलकता हुआ दिखाई देता है। दोनों परम्पराओं ने एक दूसरी से कथानकों का आदानप्रदान भी किया है। ऐसा भी हुआ है कि एक ही कथानक ने दोनों परम्पराओं में अंगीकृत होकर पृथक-पृथक रूप धारण कर लिया, या दोनों परम्पराओं ने एक ही कथानक को अपनी-अपनी मौलिक जैन धर्म वैदिक धर्म की सार कतिक एकता/114
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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