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•पौराणिक निरूपणों के अनुसार ये 'अखण्डित पौरूष' अर्थात् अपराजेय होते हैं (हरिवंश पुराण-6/289)। इन्हें देवों तक के लिए दुर्जेय बताया गया है (हरिवंश पुराण-5/21)। इन में बीस लाख
अष्टापदों की शक्ति होती है। (समवायांग 667)। हरिवंश पुराण के (36/44) के अनुसार एक हजार सिंह व हाथियों का बल इनमें था।
वे धर्म-निष्ठ, तीर्थंकर-भक्त एवं समाजकल्याण की भावना से ओतप्रोत थे। समय-समय में वे समस्त परिवार के साथ तीर्थंकर की सभा में धर्मोपदेश-श्रवण हेतु जाते थे।
अनेक उत्थान-पतन की प्रक्रिया में से गुजरते हुए ये भावी जन्म में जैन धर्म के सर्वोत्कृष्ट प्रतिष्ठित पद 'तीर्थंकर' को प्राप्त कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होंगे (द्र. स्थानांग-9/61, समवायांग-663/65, उत्तरपुराण-72/181-184, 28-281, त्रिलोकसार-833) निश्चित ही वे परमात्मा-परमेश्वर व भगवान् होने का गौरव प्राप्त कर जन-जन के आराध्य व उपास्य बनेंगे।
उपर्युक्त निरूपण के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि जैन परम्परा में भी श्रीकृष्ण के महनीय स्वरूप को निरूपित किया गया है और इन्हें असाधारण महापुरुषों में परिगणित किया गया है। इस सम्बन्ध में वैदिक मान्यता से जो कुछ भिन्नता है, तो वह जैन विचारधाराणा की अपनी मौलिक मान्यताओं के कारण है।
दोनों परम्पराओं के कथानकों में साम्य
मनोविनोद व ज्ञानवर्द्धन की जितनी सुगम और उपयुक्त साधन कथा-कहानी है, उतनी साहित्य की कोई अन्य विधा नहीं है। कथाओं में मित्र-सम्मत या कान्तासम्मत उपदेश निहित होता है जो श्रवण में सरस-मधुर और आचरण में सुगम प्रतीत होता है। यही . कारण है कि मानव ने जन्म लेकर अपने नेत्र खोले, तभी से लेकर जीवन की अन्तिम श्वास तक वह कथा-कहानी सुनता आ रहा है।
प्रथम सड.113