SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - अर्थात् अष्टम बलदेव श्रीराम सर्वज्ञ, वीतराग, एवं देवों के भी देव हैं, इन्द्र भी जिनके प्रति नतमस्तक हैं, दुःखदायी पापकर्मों से होने वाले दुष्ट/अशुभ फलों से वे सर्वथा दूर हैं तथा समस्त (पूर्ण) सुख की स्थिति 'सिद्ध-मुक्त-अवस्था' को प्राप्त कर चुके हैं। वे हम लोगों के अभीष्ट मनोरथ को पूर्ण करें। (जेन परम्परा में वासुदेव श्रीकृष्ण) जैन मान्यतानुसार, वासुदेव श्रीकृष्ण 23 वें तीर्थंकर नेमिनाथ के समय 9 वें वासुदेव (नारायण) के रूप में इस धरातल पर आए थे (हरिवंश-पुराण- 6/288-289, तिलोयपण्णत्ति- 4/5/8)।उनकेगौरवपूर्ण जीवन से सम्बद्ध कुछ सूचनाएं यहां प्रस्तुत हैं: वे (महाशुक्र नामक) स्वर्गलोक से धराधाम पर अवतरित (च्यवित) हुए थे (पद्मपुराण- 2/218-2)। . .इनके बड़े भाई बलराम भी 9 वें बलदेव के रूप में स्वर्गलोक से आए थे (पद्मपुराण- 2/236-37)। जन्म से ही शंख, चक्र, गदा आदि प्रशस्त चिन्ह इनके शरीर में थे (हरिवंशपुराण- 35/35)।ये पीताम्बर व मोरमुकुट केधारी थे (हरिवंश पुराण- 35/35)। वे सौम्य, प्रियदर्शन, ओजस्वी, तेजस्वी व दयालु थे। •ये अर्धचक्री व त्रिखण्डभरताधिपति माने गए है। वैदिक परम्परा की ही तरह, ये वसुदेव व देवकी के पुत्र हैं और इनका लालन-पालन यशोदा द्वारा किया गया है । वैदिक परम्परा की तरह, पूतना-वध, गोवर्धनपर्वत-धारण, चाणूरमल्ल आदि का मर्दन आदि शौर्यपूर्ण कार्यों के कर्ता- ये माने गए हैं (द्र. हरिवंश पुराण- 35 वां सर्ग)। यौवन में भी इनके द्वारा रूक्मिणी-हरण (हरिवंश पुराण- 42/ 78-97), कंसवध (ह. पु. 36/45), शिशुपाल-वध (ह. पु.- 5/24, और महान् बलशाली प्रतिनारायण (प्रतिवासुदेव) जरासन्ध का वध (ह. पु. 4/14, 6/291-292) आदि असाधारण वीरता के कार्य किये गये। %DOजेन धर्म निधर्म की साति ,112
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy