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________________ भृकुटि 21. नमिनाथ गान्धारी 22. अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) गोमेध अम्बिका 23. पार्श्वनाथ पार्श्व (धरणेन्द्र) पद्मावती (भैरवी) 24. महावीर मातंग सिद्धायिका उपर्युक्त यक्षों व यक्षिणियों के स्वरूपादि का विवरण भी जैन साहित्य में प्राप्त होता है। इनमें वैदिक परम्परा के देवों व देवियों के स्वरूपादि से साम्य भी कहीं-कहीं परिलक्षित होता है। कुछ विद्वानों ने इस साम्य का कारण वैदिक परम्परा का प्रभाव बताया है। प्राचीन जैन साहित्य के अनुशीलन से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि इन यक्षों के मन्दिर होते थे और जन-सामान्य इनकी पूजा-भक्ति भी करता था। उपर्युक्त देवों के अतिरिक्त (इन्द्राणी, वैष्णवी, कौमारी, वाराही, ब्रह्माणी, महालक्ष्मी, चामुण्डी व भवानी- ये) आठ मातृकाएं, दश दिक्पाल एवं नवग्रह भी जैन साहित्य में पूर्जा-अर्चा के पात्रों के रूप में वर्णित किये गये हैं। (8) ईश्वर-सेवित वृक्ष और चैत्यवृक्ष वैदिक व जैन- दोनों परम्पराओं में कुछ विशिष्ट वृक्षों को परमेश्वर या देवों से सेवित बता कर उन्हें महनीयता दी गई है। वैदिक परम्परा में इस समस्त संसार को एक ऐसे महान् वृक्ष के रूप में निरूपित किया गया है जिसकी एक शाखा पर ईश्वर रूपी पक्षी है तो दूसरी शाखा पर जीव रूपी पक्षी। इनमें ईश्वर संसार-वृक्ष के फलों (कर्म-फलों) को नहीं चखता और जीव उनका उपभोग करता है (द्रष्टव्यः ऋग्वेद-1/164/2)। ___ यही मान्यता उपनिषदों व पुराणों में भी पुष्पित-फलित हुई है (द्र.श्वेताश्वतर उपनिषद् 4/6-7) गीता में (1 5/1-3) में भी इस कर्मात्मक प्रथम खण्ड,103
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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