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________________ संसार को एक अविनाशी अश्वत्थ वृक्ष के रूप में निरूपित करते हुए वेद को इसके पत्ते बताया गया है। [सम्भवतः इस निरूपण की पृष्ठभूमि में लौकिक अश्वत्थ-पीपल के वृक्ष को सर्वश्रेष्ठ माना गया है (द्र. गीता- 1/26)।] भागवत पुराण (1/2/27) में भी इस प्रकृति को एक सनातन वृक्ष के रूप में निरूपित करते हुए इस पर जीव व ईश्वर-इन दो पक्षियों के बैठे रहने का निर्देश किया गया है एकायनोऽसौ द्विफलस्त्रिमूलः, चतूरसः पंचविधः षडात्मा। सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः॥ एक प्रसिद्ध स्तुति में बालक कृष्ण को वट वृक्ष के पत्ते पर लेटे हुए बताया गया है- 'बटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि' । भागवत पुराण (3/9/16) में परमात्मा को ही विश्व-वृक्ष के रूप में चित्रित करते हुए ब्रह्मा-विष्णु शिव आदि को उक्त वृक्ष की प्रधान शाखा- प्रशाखाएं बताया गया है। समग्र विवेचन का सारांश यह है कि वैदिक परम्परा में वृक्ष को ईश्वर के साथ किसी न किसी रूप में जोड़ा जाता रहा है। ____ जैन परम्परा में उपर्युक्त भावना/मान्यता के समानान्तर, वृक्षों को स्वर्गीय देवों से तथा परमेश्वर तीर्थंकरों से जोड़ने की मान्यता दृष्टिगोचर होती है। जैन मान्यता यह है कि प्रत्येक तीर्थंकर ने किसी न किसी वृक्ष के नीचे बैठ कर, तपस्या करते हुए परमात्मरूपता (केवलज्ञान) प्राप्त की है। इन वृक्षों को अशोकवृक्ष भी कहा जाता है क्योंकि इनकी शरण में आने वालों का शोक दूर हो जाता है (द्र. तिलोयपण्णत्ति- 4/91 5-918)। जैन आगम समवायांग (646 सूत्र) में इन वृक्षों को 'सुरासुरमहित'-देवों आदि से पूजित बताया गया है। प्रत्येक तीर्थंकर के चैत्यवृक्षों के नाम इस प्रकार हैं (द्र. समवायांग- 646, किन्तु तिलोयपण्णत्ति-4/91 5-18 में नाम-भेद से इनका निर्देश है): जैन धम दिल धमनी साHिI 104
SR No.006297
Book TitleJain Dharm Vaidik Dharm Ki Sanskrutik Ekta Ek Sinhavlokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2008
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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