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आदि अनेकानेक देव आराध्य थे- उसमें उक्त बहुमान-प्रदर्शन की भावना ही कारण थी। विशिष्ट वृक्षों, नदियों, पर्वतों आदि के अतिरिक्त, गौ आदि की पूजा भी की जाती रही है।
___ सामाजिक दृष्टि से उपयोगी एवं बौद्धिक प्रतिभा के धनी ब्राह्मणों को 'भूदेव' के रूप में पूज्य माना गया । पारिवारिक दृष्टि से माता-पिता आदि को देववत् पूज्य माना जाता रहा है। प्रत्येक भारतीय गृहागत अतिथि का देववत् पूज्य मान कर यथोचित सत्कार करता है। अतिथि के आने को वह उसका उपकार मानता है क्योंकि उसके आने से ही उसे दान धर्म के अनुष्ठान का पुण्य-अवसर सहजतया प्राप्त होता है। - ज्योतिष-विद्या के अनुसार, हमारे जीवन पर अच्छा या बुरा प्रभाव डालने वाले नव ग्रहों आदि की पूजा-आराधना भी समाज में प्रचलित रही है। वैदिक परम्परा में मृत श्रद्धास्पद व्यक्तियों की भी पितृदेव के रूप में प्रवर्तमान पूजा आदि की प्रवृत्ति भी दृष्टिगोचर होती है।
निष्कर्ष यह है कि बहुमान प्रदर्शन की भावना के कारण, आराध्य-पूज्यों की संख्या लगातार बढती गई है।
(शासन-देव व देवियां):
जैन परम्परा भी उक्त प्रवृत्ति से अछूती नहीं रही है । यही कारण है कि इसमें अनेक यक्षों व यक्षिणियों को देवकोटि में परिगणित किया गया है और उनके प्रति बहुमान व भक्ति-भाव प्रदर्शित करने की परम्परा भी दृष्टिगोचर होती है। उक्त यक्ष व यक्षिणियां व्यन्तर देव (निम्न कोटि के देव) होते हैं जो धर्म व शासन की सतत उन्नति करने हेतु उद्यत रहते हैं- इसलिए इन देवों को शासन-देव व शासन-देवियां कहा जाता है। ये यक्ष व यक्षिणियां तीर्थंकर के भक्त व सेवक होते हैं। इस अवसर्पिणी काल में प्रत्येक तीर्थंकर का एक
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