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जैन-शास्त्रों के अनुसार देवी सरस्वती के चार हाथ होते हैं। दायीं ओर का एक हाथ अभयमुद्रा में उठा रहता है, और दूसरे में कमल होता है। बायीं ओर के दो हाथों में क्रमशः पुस्तक और अक्षमाला रहती है। देवी का वाहन हंस है। देवी का वर्ण श्वेत होता है। देवी के तीन नेत्र होते हैं, और उसकी जटाओं में बालेन्दु शोभा पाता है (द्र. सरस्वतीकल्प)।
सरस्वती की प्राचीनतम मूर्ति (132 ई.) जैन परम्परा की है और मथुरा (संगृहीत-राज्य संग्रहालय, लखनऊ-जे 24) से मिली है। द्विभुज देवी की वाम भुजा में पुस्तक है और अभयमुद्रा प्रदर्शित करती दक्षिण भुजा में अक्षमाला है।
सरस्वती की स्तुति में अनेक जैन आचार्यों और पंडितों ने कल्प, स्तोत्र और स्तवन रचे हैं। मल्लिषेण-कृत भारतीकल्प, बप्पभट्टि का सरस्वतीकल्प, साध्वी शिवाया का पठितसिद्धसारस्वतस्तव, जिनप्रभसूरि का शारदास्तवन और विजयकीर्ति के शिष्य मलयकीर्ति का सरस्वतीकल्प प्रसिद्ध रचनाओं में से हैं।
(6) सोलह विद्यादेवियां
'सरस्वती' के अतिरिक्त, सोलह विद्या-देवियों की मान्यता भी जैन परम्परा में दृष्टिगोचर होती है।
अभिधानचिन्तामणि में विद्यादेवियों के नामों का उल्लेख करते हुए उन्हें वाक्, ब्राह्मी, भारती, गौ, गीर्, वाणी, भाषा, सरस्वती, श्रुतदेवी, वचन, व्याहार, भाषित और वचस् भी कहा गया है। सम्भवतः जैनों की विद्यादेवियां वस्तुतः अपने नाम के अनुसार वाणी की विभिन्न प्रकृतियों के कल्पित मूर्त रूप हों। विद्यादेवियों का स्वरूप बताते समय प्रायः सभी ग्रन्थों में उन्हें ज्ञान से संयुक्त कहा गया है।
प्रथम
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